05 फ़रवरी, 2008

सर्ग दो

देवकी का नन्दन यशोदा की गोद में


``बात क्या मन की कहूँ मैं, आज जब तुम जा रहे हो,
धैर्य मैं धारण करूँ, यह बात तुम समझा रहे हो।
धैर्य का उपदेश यह जो आज मुझको दे रहे हो,
क्या न समझूँ, तुम परीक्षा आज मेरी ले रहे हो।''


``यह परीक्षा भी नहीं, उपदेश क्या देना मुझे है?
नाव जीवन की तुम्हारे, साथ ही देना मुझे है।
जा रहा हूँ, किन्तु यह तो एक स्वल्प प्रवास ही है,
यह हमारे कार्यक्रम का एक प्रिय अभ्यास है है।''


``कार्यक्रम? क्या कार्यक्रम फिर तुम वही दुहरा रहे हो?
क्या वहीं विध्वंस-लीला फिर मचाने जा रहे हो?
इस हुकूमत को उलटना, यह तुम्ह़ारा कार्यक्रम है,
काम शुभ करने चले, साहस तुम्हारा कुछ न कम है।


किन्तु घर का भार किस पर छोड़ने का तय किया है?
क्या कभी इस और भी तुमने कभी निश्चय किया है?
हैं न कम भाई तुम्हारे, जेल को ही घर बनाया,
भाव मन में भी तुम्हारे, यह सदा से ही समाया।


यह बहू कितनी दुखी, क्या तुम नहीं ये जानते हो?
क्यों न मन की पीर उसकी तुम कभी पहचानते हो?
जेल को घर समझ, देवर ने किया घर से किनारा,
रह गया है आँसुओं का ही इसे केवल सहारा।


कार्य-क्रम ही लक्ष्य है, तो यत्न कर उसको छुड़ाओ,
दुख नहीं होगा मुझे, वह घर रहे तुम दूर जाओ।
क्यों न दुख-सुख भी परस्पर बाँट सम-भागी बनें हम?
वीतरागी तो नहीं, फिर क्यों न अनुरागी बनें हम?''


ठीक ही तुम कह रहे हो, यत्न का भी ध्यान मुझको,
वीर भाई पर सदा से ही रहा अभिमान मुझको।
और सचमुच दुख वधू का भी दुसह अब हो चला है,
किन्तु रो-धो कर किसी का आज तक कब दुख टला है।


दु:ख कितना भी बड़ा हो, धैर्य ही उपचार होता,
डूबते को एक तिनका भी बड़ा आधार होता।
सौंप दो उसको भगत, खेले उसी की गोद में वह,
पुत्र अपना ही समझ कर, हो सदा ही मोद में वह।


गृह-चिन्तन सभी, अब यह तुम्हारा कार्य होगा,
मैं रहूँ निश्चिन्त, तो फिर यत्न भी अनिवार्य होगा।
आज से सहयोग या सह-धर्म यह होगा तुम़्हारा,
यह तुम्हारा योग, मेरे यत्न में होगा सहारा।


है मुझे विश्वास, अपन धर्म तुम पहचानती हो,
जो परिस्थितियाँ हमारी है, वह तुम जानती हो।
हैं सदा चलना उसी पर, पंथ जो अपना लिया है,
उठ गयें जो पाँव, काँटों जो समझौता किया है''


इस तरह गृह-पति गये, था कार्य का उनको निमंत्रण,
और गृहणी को दिया कर्त्तव्य अब गृह का निमंत्रण,
स्नेह से निज देवरानी को बहन कहकर बुलाया,
और फिर मंतव्य अपना यत्न से उसको सुनाया-


``जानती हो बहन! तुमसे है छिपी क्या बात घर की
खा रहे यह ठोकरें सब, देश के हित दर-बदर की,
छोड़कर दायित्व मुझ पर- आज वह भी वह जा चुके हैं,
किस तरह करना हमें क्या, वे सभी समझा जा चुके हैं।


भार मैं गृह की व्यवस्था का स्वयं ही ले रही हूँ।
जानती हूँ बाल के प्रति हैं अकथ अपनत्व तुमको,
लाल के प्रति आज माँ का सौंपती हूँ स्वत्व तुमको''


``भाग्यशाली मैं बहुत, जीजी! तुम्हारा प्यार पाकर,
और भी बड़भागिनी हूँ, आज यह अधिकार पाकर।
यह बड़प्पन है तुम्हारा, जानतीं तुम मर्म मेरा,
चाहती हूँ, पर सुरक्षित रहे सेवा-धर्म मेरा।


स्नेह तो पा ही लिया है, किन्तु मैं आशीष पाऊँ,
कर्म-रत रहकर सदा सद्धर्म में अपना निभाऊँ।
चैन पहुँचाती सभी के हृदय को कर्त्तव्य-रति है;
कर्म की ही प्रेरणा, इस विश्व-जीवन की सुगति है।


ओर यह चन्दा सलोना जो मुझे तुमने दिया है,
सच कहूँ जीजी! बड़ा उपकार ही तमुने किया है।
लग रहा मुझको कि जैसे आज बचपन लौट आया,
कूदता-हँसता खिलौना, खेलने को आज पाया।


बाल में चापल्य, वय के साथ बढ़ता जा रहा हूँ,
बाल-रवि वय के गगन में पुलक चढ़ता जा रहा है।
ठुमक कर चलना, फुदकना, सरलता से खिल-खिलाना,
मोहनी सी डालता है, बाल का आँखें मिलाना।



ये नयन बोले बिना ही भेद मन का खोल देते,
और अस्फुट बोले तो मानो सुधा-रस घोल देते।
गोद का, घर का, न आँगन का इसे बन्धन सुहाता,
लग गयें हैं, पाँव बाहर खेलने जी छटपटाता।


है मुझे विश्वास जीजी! वंश का दीपक हमारा,
विश्व का आलोक होगा, देश का उज्ज्वल सितारा।
भग्न इस मेरे हृदय की, एक शुभ आशा यह ही हंै,
देश का गौरव बने यह, आज अभिलाषा यहीं है।
-०००-

1 टिप्पणी:

Upendra Chaubey ने कहा…

Apki is kavita ko padhakr atyant prasannata hui. jise abhivyak kar pana jara kathin hai.