05 फ़रवरी, 2008

सर्ग दो

देवकी का नन्दन यशोदा की गोद में


``बात क्या मन की कहूँ मैं, आज जब तुम जा रहे हो,
धैर्य मैं धारण करूँ, यह बात तुम समझा रहे हो।
धैर्य का उपदेश यह जो आज मुझको दे रहे हो,
क्या न समझूँ, तुम परीक्षा आज मेरी ले रहे हो।''


``यह परीक्षा भी नहीं, उपदेश क्या देना मुझे है?
नाव जीवन की तुम्हारे, साथ ही देना मुझे है।
जा रहा हूँ, किन्तु यह तो एक स्वल्प प्रवास ही है,
यह हमारे कार्यक्रम का एक प्रिय अभ्यास है है।''


``कार्यक्रम? क्या कार्यक्रम फिर तुम वही दुहरा रहे हो?
क्या वहीं विध्वंस-लीला फिर मचाने जा रहे हो?
इस हुकूमत को उलटना, यह तुम्ह़ारा कार्यक्रम है,
काम शुभ करने चले, साहस तुम्हारा कुछ न कम है।


किन्तु घर का भार किस पर छोड़ने का तय किया है?
क्या कभी इस और भी तुमने कभी निश्चय किया है?
हैं न कम भाई तुम्हारे, जेल को ही घर बनाया,
भाव मन में भी तुम्हारे, यह सदा से ही समाया।


यह बहू कितनी दुखी, क्या तुम नहीं ये जानते हो?
क्यों न मन की पीर उसकी तुम कभी पहचानते हो?
जेल को घर समझ, देवर ने किया घर से किनारा,
रह गया है आँसुओं का ही इसे केवल सहारा।


कार्य-क्रम ही लक्ष्य है, तो यत्न कर उसको छुड़ाओ,
दुख नहीं होगा मुझे, वह घर रहे तुम दूर जाओ।
क्यों न दुख-सुख भी परस्पर बाँट सम-भागी बनें हम?
वीतरागी तो नहीं, फिर क्यों न अनुरागी बनें हम?''


ठीक ही तुम कह रहे हो, यत्न का भी ध्यान मुझको,
वीर भाई पर सदा से ही रहा अभिमान मुझको।
और सचमुच दुख वधू का भी दुसह अब हो चला है,
किन्तु रो-धो कर किसी का आज तक कब दुख टला है।


दु:ख कितना भी बड़ा हो, धैर्य ही उपचार होता,
डूबते को एक तिनका भी बड़ा आधार होता।
सौंप दो उसको भगत, खेले उसी की गोद में वह,
पुत्र अपना ही समझ कर, हो सदा ही मोद में वह।


गृह-चिन्तन सभी, अब यह तुम्हारा कार्य होगा,
मैं रहूँ निश्चिन्त, तो फिर यत्न भी अनिवार्य होगा।
आज से सहयोग या सह-धर्म यह होगा तुम़्हारा,
यह तुम्हारा योग, मेरे यत्न में होगा सहारा।


है मुझे विश्वास, अपन धर्म तुम पहचानती हो,
जो परिस्थितियाँ हमारी है, वह तुम जानती हो।
हैं सदा चलना उसी पर, पंथ जो अपना लिया है,
उठ गयें जो पाँव, काँटों जो समझौता किया है''


इस तरह गृह-पति गये, था कार्य का उनको निमंत्रण,
और गृहणी को दिया कर्त्तव्य अब गृह का निमंत्रण,
स्नेह से निज देवरानी को बहन कहकर बुलाया,
और फिर मंतव्य अपना यत्न से उसको सुनाया-


``जानती हो बहन! तुमसे है छिपी क्या बात घर की
खा रहे यह ठोकरें सब, देश के हित दर-बदर की,
छोड़कर दायित्व मुझ पर- आज वह भी वह जा चुके हैं,
किस तरह करना हमें क्या, वे सभी समझा जा चुके हैं।


भार मैं गृह की व्यवस्था का स्वयं ही ले रही हूँ।
जानती हूँ बाल के प्रति हैं अकथ अपनत्व तुमको,
लाल के प्रति आज माँ का सौंपती हूँ स्वत्व तुमको''


``भाग्यशाली मैं बहुत, जीजी! तुम्हारा प्यार पाकर,
और भी बड़भागिनी हूँ, आज यह अधिकार पाकर।
यह बड़प्पन है तुम्हारा, जानतीं तुम मर्म मेरा,
चाहती हूँ, पर सुरक्षित रहे सेवा-धर्म मेरा।


स्नेह तो पा ही लिया है, किन्तु मैं आशीष पाऊँ,
कर्म-रत रहकर सदा सद्धर्म में अपना निभाऊँ।
चैन पहुँचाती सभी के हृदय को कर्त्तव्य-रति है;
कर्म की ही प्रेरणा, इस विश्व-जीवन की सुगति है।


ओर यह चन्दा सलोना जो मुझे तुमने दिया है,
सच कहूँ जीजी! बड़ा उपकार ही तमुने किया है।
लग रहा मुझको कि जैसे आज बचपन लौट आया,
कूदता-हँसता खिलौना, खेलने को आज पाया।


बाल में चापल्य, वय के साथ बढ़ता जा रहा हूँ,
बाल-रवि वय के गगन में पुलक चढ़ता जा रहा है।
ठुमक कर चलना, फुदकना, सरलता से खिल-खिलाना,
मोहनी सी डालता है, बाल का आँखें मिलाना।



ये नयन बोले बिना ही भेद मन का खोल देते,
और अस्फुट बोले तो मानो सुधा-रस घोल देते।
गोद का, घर का, न आँगन का इसे बन्धन सुहाता,
लग गयें हैं, पाँव बाहर खेलने जी छटपटाता।


है मुझे विश्वास जीजी! वंश का दीपक हमारा,
विश्व का आलोक होगा, देश का उज्ज्वल सितारा।
भग्न इस मेरे हृदय की, एक शुभ आशा यह ही हंै,
देश का गौरव बने यह, आज अभिलाषा यहीं है।
-०००-

सर्ग दो



देवकी का नन्दन यशोदा की गोद में


``बात क्या मन की कहूँ मैं, आज जब तुम जा रहे हो,
धैर्य मैं धारण करूँ, यह बात तुम समझा रहे हो।
धैर्य का उपदेश यह जो आज मुझको दे रहे हो,
क्या न समझूँ, तुम परीक्षा आज मेरी ले रहे हो।''
``यह परीक्षा भी नहीं, उपदेश क्या देना मुझे है?
नाव जीवन की तुम्हारे, साथ ही देना मुझे है।
जा रहा हूँ, किन्तु यह तो एक स्वल्प प्रवास ही है,
यह हमारे कार्यक्रम का एक प्रिय अभ्यास है है।''
``कार्यक्रम? क्या कार्यक्रम फिर तुम वही दुहरा रहे हो?
क्या वहीं विध्वंस-लीला फिर मचाने जा रहे हो?
इस हुकूमत को उलटना, यह तुम्ह़ारा कार्यक्रम है,
काम शुभ करने चले, साहस तुम्हारा कुछ न कम है।
किन्तु घर का भार किस पर छोड़ने का तय किया है?
क्या कभी इस और भी तुमने कभी निश्चय किया है?
हैं न कम भाई तुम्हारे, जेल को ही घर बनाया,
भाव मन में भी तुम्हारे, यह सदा से ही समाया।
यह बहू कितनी दुखी, क्या तुम नहीं ये जानते हो?
क्यों न मन की पीर उसकी तुम कभी पहचानते हो?
जेल को घर समझ, देवर ने किया घर से किनारा,
रह गया है आँसुओं का ही इसे केवल सहारा।
कार्य-क्रम ही लक्ष्य है, तो यत्न कर उसको छुड़ाओ,
दुख नहीं होगा मुझे, वह घर रहे तुम दूर जाओ।
क्यों न दुख-सुख भी परस्पर बाँट सम-भागी बनें हम?
वीतरागी तो नहीं, फिर क्यों न अनुरागी बनें हम?''
ठीक ही तुम कह रहे हो, यत्न का भी ध्यान मुझको,
वीर भाई पर सदा से ही रहा अभिमान मुझको।
और सचमुच दुख वधू का भी दुसह अब हो चला है,
किन्तु रो-धो कर किसी का आज तक कब दुख टला है।
दु:ख कितना भी बड़ा हो, धैर्य ही उपचार होता,
डूबते को एक तिनका भी बड़ा आधार होता।
सौंप दो उसको भगत, खेले उसी की गोद में वह,
पुत्र अपना ही समझ कर, हो सदा ही मोद में वह।
और गृह-चिन्तन सभी, अब यह तुम्हारा कार्य होगा,
मैं रहूँ निश्चिन्त, तो फिर यत्न भी अनिवार्य होगा।
आज से सहयोग या सह-धर्म यह होगा तुम़्हारा,
यह तुम्हारा योग, मेरे यत्न में होगा सहारा।
है मुझे विश्वास, अपन धर्म तुम पहचानती हो,
जो परिस्थितियाँ हमारी है, वह तुम जानती हो।
हैं सदा चलना उसी पर, पंथ जो अपना लिया है,
उठ गयें जो पाँव, काँटों जो समझौता किया है''
इस तरह गृह-पति गये, था कार्य का उनको निमंत्रण,
और गृहणी को दिया कर्त्तव्य अब गृह का निमंत्रण,
स्नेह से निज देवरानी को बहन कहकर बुलाया,
और फिर मंतव्य अपना यत्न से उसको सुनाया-
``जानती हो बहन! तुमसे है छिपी क्या बात घर की
खा रहे यह ठोकरें सब, देश के हित दर-बदर की,
छोड़कर दायित्व मुझ पर- आज वह भी वह जा चुके हैं,
किस तरह करना हमें क्या, वे सभी समझा जा चुके हैं।
आज से दायित्व में तुमको भगत का दे रही हूँ
भार मैं गृह की व्यवस्था का स्वयं ही ले रही हूँ।
जानती हूँ बाल के प्रति हैं अकथ अपनत्व तुमको,
लाल के प्रति आज माँ का सौंपती हूँ स्वत्व तुमको''
``भाग्यशाली मैं बहुत, जीजी! तुम्हारा प्यार पाकर,
और भी बड़भागिनी हूँ, आज यह अधिकार पाकर।
यह बड़प्पन है तुम्हारा, जानतीं तुम मर्म मेरा,
चाहती हूँ, पर सुरक्षित रहे सेवा-धर्म मेरा।
स्नेह तो पा ही लिया है, किन्तु मैं आशीष पाऊँ,
कर्म-रत रहकर सदा सद्धर्म में अपना निभाऊँ।
चैन पहुँचाती सभी के हृदय को कर्त्तव्य-रति है;
कर्म की ही प्रेरणा, इस विश्व-जीवन की सुगति है।
और यह चन्दा सलोना जो मुझे तुमने दिया है,
सच कहूँ जीजी! बड़ा उपकार ही तमुने किया है।
लग रहा मुझको कि जैसे आज बचपन लौट आया,
कूदता-हँसता खिलौना, खेलने को आज पाया।
बाल में चापल्य, वय के साथ बढ़ता जा रहा हूँ,
बाल-रवि वय के गगन में पुलक चढ़ता जा रहा है।
ठुमक कर चलना, फुदकना, सरलता से खिल-खिलाना,
मोहनी सी डालता है, बाल का आँखें मिलाना।
ये नयन बोले बिना ही भेद मन का खोल देते,
और अस्फुट बोले तो मानो सुधा-रस घोल देते।
गोद का, घर का, न आँगन का इसे बन्धन सुहाता,
लग गयें हैं, पाँव बाहर खेलने जी छटपटाता।
है मुझे विश्वास जीजी! वंश का दीपक हमारा,
विश्व का आलोक होगा, देश का उज्ज्वल सितारा।
भग्न इस मेरे हृदय की, एक शुभ आशा यह ही हंै,
देश का गौरव बने यह, आज अभिलाषा यहीं है।
-०००-

बुढ़िया-पुराण या परीक्षित मनोविज्ञान

बुढ़िया-पुराण या परीक्षित मनोविज्ञान

शैशव सुख की साँस ले रहा था ममता की मृदु छाया में,
रमे हुए थे सब ही के मन, उस जादूगर की माया में।
जाने कौन-कौन सी निधियाँ, मुट्ठी में बाँधे रहता था,
सुखद सिद्धियाँ कितनी-कितनी, मन ही मन साधे रहता था।


जो कुछ पड़े हाथ में, मुख के अर्पण होना सहज कृत्य था,
अभी जटिलता छू न गई थी, जो कुछ था सब सरल सत्य था।
बाल खिलौनों से क्या खेले, बना हुआ था स्वयं खिलौना,
किलकारी से सुधा बरसती, मुस्कानों से जादू-टोना।


यह भोलापन, हाव-भाव ये क्यों न किसी को प्यारे होते?
उस चन्दा पर क्यों न रात-दिन राई-लोन उतारे होते?
उसकी गतियों में विकास था, उस विकास में अच्छी गति थी,
पैतृक अनुहारों की, शिशु के अंग-अंग में प्रिय अनुरति थी।


अब बन्धन बन गया, खिलाड़ी उस ललना को अपना पलना,
पीठ उठा, करवट ले-लेकर, सहज कृत्य हो गया उछलना।
भू पर सरक-सरक चलने में, उसको अद्भूत सुख मिलता था,
चूम-चूम धरती-माता को, उसका मन-प्रसून खिलता था।


बालक क्या था, एक खिलौना सबने किया स्नेह-अर्पण था,
बुआ, चाचियों और ताइयों सब ही का वह आकर्षण था।
थी पड़ोस की महिलाओं की, बैठक वहाँ नित्य ही जमती,
एक बार चर्चा छिड़ जाये, नहीं थामने से वह थमती।


कोई कहती-``घर का चन्दा कितना प्यारा-प्यारा होगा,
सभी जगह उजियाला होगा गुड्डा राज-दुलारा होगा।''
कोई कहती-``बड़ा आदमी, बहुत बड़ा यह अफसर होगा,
खूब कमाई करके देगा, सदा सुखी इसका घर होगा।''


जब महिला-मंडल जुड़ जाता, बातों का बस क्रम ही क्रम था,
बाल-मनोविज्ञान उखड़ता, नहीं तर्क में कुछ विभ्रम था।
किसी एक को उस दिन सूझी-आओ! इसका भाग्य परख लें,
आगे यह क्या बनने वाला, सरल युक्ति से इसे निरख लें।


जटा लिये उपकरण अनेकों, खेल-खिलौने, पट्टी-पुस्तक,
कलम-दवात, और आभूषण सोने-चाँदी के आकर्षक।
वस्त्र रेशमी हुए उपस्थित सुन्दर चमकीले-भड़कीले,
स्वच्छ, धवल, कुछ रंग-बिरंगे, लाल, गुलाबी नीले-पीले।


कृषि-उद्योग आदि के भी कुछ यन्त्र हुये सज्जित धरती पर,
छोटे-मोटे अस्त्र-शस्त्र भी रखे वहाँ पर एकत्रित कर।
निश्चिय हुआ सरक कर बालक जो भी पहली वस्तु उठाये
तो उसके भविष्य का उसके क्रम ये अर्थ लगाया जाये।


कुछ दूरी पर बाल-सिंह को छोड़ दिया आगे बढ़ जाने,
रखे हुए उपकरण अनेकों, सम्मुख ही थे मन ललचाने।
किलक गया शिशु उन्हें देखकर, लगा सरकने वह मुँह बाए,
लगा तैरता-चलता-सा वह, हाथ बढ़ा कर शीष उठाए।


निकट वस्तुओं के जा पहुँचा, ऐसा उसने भरा सपाटा,
जहाँ रखे थे अलंकरण कुछ, मारा उन पर एक झपाटा।
बिखर गये सब इधर-उधर वे, मानो यह उनका वितरण था,
लगा कि जैसे यह समानता से ही बँटवारे का प्रण था।


फिर उस ओर लपक बैठा वह, एक तमंचा रखा जहाँ पर,
एक सपाटे में ही उसको जाकर हथिया लिया किलक कर।
अब बालक के लिये दौड़ थी, चाची ने झट लपक उठाया,
बार-बार माथे का चुम्बन लेकर उसको हृदय लगाया।


बोली-``राजा बेटा घर की आन-बान का रखवाला है,
इसीलिये तो वीर-पुत्र ने हाथ तमंचे पर डाला है।''
कोई बोल उठी,``यह काका आगे चल जण्डेल बनेगा,
बडे-बड़ों की नाकों को यह गुड्डा विकट नकेल बनेगा।''


जिसने जो बन पड़ा, सभी ने अपनी मति से अर्थ लगाया,
चूम, बलैयाँ ले-ले सबने संचित स्नेहाशीष लुटाया।
माँ प्रमुदित थी सुन-सुनकर यह, फूल, रही थी मन ही मन में,
मना रही थी सदा सुखी हो हे प्रभु! यह अपने जीवन में।


यह सबकी आँखों का तारा जग में अद्भूत नाम कमाये,
इसकी उज्ज्वल कीर्ति-सूरभि से, जग का घर-आँगन भर जाये।
भोजन के क्रम में गृहिणी ने गृह-पति को सब हाल सुनाया,
भाग्य परखने का उपक्रम सब उनको ब्यौरे-बार बताया।


कहा किस तरह किलक-किलक कर शिशु ने निज करतब दिखलाये
और किस तरह आभूषण सब उसने हाथों से बिखराए।
कहा-लपक कर कैसे उसने हाथ तमंचे पर था डाला,
कहा कि कैसे सबने उसको बतलाया घर का उजियाला।


फिर सगर्व बोली-``दिखता, यह तुम पर ही जाएगा आगे,
यह घर में क्या आया, लगता जैसे भाग्य हमारे जागे।
वक्ष तन गया गृह-पति का भी, मूँछों-मूँछों में मुस्काए,
बाल-सिंह को गोदी से ले, लगे अकड़ने रौब जमाए।


बोल उठे, ``मुझको भी दिखता,
उज्ज्वलतम भविष्य इसका है।
बोलो! अब तो मान गई तुम,
आखिर यह बेटा किसका है।''
-०००-

जीवन का स्वर्ण भोर

जीवन का स्वर्ण भोर


`जन्म' नाम पाया है मैंने, जब से जन्म हुआ है मेरा,
विविध रूप नामों से जग में लगता रहता मेरा फेरा।
जग-जीवन के दो छोरों में, मैं जीवन का एक छोर हैं,
दुख की काली रात नहीं हूँ, मैं जीवन का स्वर्ण-भोर हूँ।


मैं जन-जीवन का प्रतीक हूँ, मैं उमंग की मृदु हिलोर हूँ,
एक-दूसरे को जो, बाँधे, बन्धन की वह स्नेह-डोर हूँ।
मैं अपने मन का राजा हूँ, नहीं समय का मैं अनुचर हूँ,
मैं दर्पण का उज्ज्वल मुख हूँ, शुभागमन मैं चिर-सुन्दर हूँ।


यह जितनी है सृष्टि, सभी के जीवन का मैं पहला क्रम हूँ,
कोई कहता निपट सत्य मैं, कोई कहता हैं मैं भ्रम हूँ।
जो कुछ हूँ मैं, एक अजन्मा की शुभ इच्छाओं का फल हूँ,
मैं जीवन की प्रथम रश्मि हूँ, सूनेपन की चहल-पहल हूँ।


जब मैं अपनी आँख खोलता, तोप फिर जीवन ही जीवन है,
जल-थल-नभ मेरे घर-आँगन, मेरी गति यह जड़ चेतन है।
जग के जन ग्रह-नक्षत्रों से मेरी गति निर्धारित करते,
मेरे जीवन पथ के जाने कितने-कितने चित्र उतरते।



देख-देख इन गति-विधियों को, मन ही मन मैं मुस्काता हूँ,
ज्ञात मुझे भी नहीं कौन-सा पथ जिस पर मैं बढ़ जाता हूँ।
उत्कण्ठा के पथ चल कर, मैं जग-जीवन में आता हूँ,
आशा के उज्ज्वल प्रकाश-सा, सब के मन पर छा जाता हूँ।
-०००-

शहीद भगत सिंह महाकाव्य -सर्ग (1)


सर्ग एक
सिंह-जननी





शान्ति के वरदान-सी, तुम धवल-वसना कौन?
संकुचित है मौन लख कर तुम्हारा मौन।
दूध की मुस्कान से संपृक्त ये सित केश,
सौम्यता पर शुभ्रता ज्यों विमल परिवेश।

साधुता की, सरल जीवन के लिए यह देन,
उल्लसित मंथित अमल ज्यों ज्योत्स्ना का फेन।
भव्यता धारण किये शुचि धवल दिव्य दुकूल,
या खिले जीवन-लता पर ये सुयश के फूल।

कलुषता निर्वासिनी, यह धवलता की जीत,
संवरित है शीष पर, यह स्नेह का नवनीत।
प्रस्फुटित है भाल पर मानो हृदय का ओप,
साधना पर, सिद्धि का मानो सुखद आरोप।

और मुख पर स्निग्ध अंतर की झलकती क्रांति
लग रही, ज्यों साँस सुख की ले रही हो शांति।
भावनाओं की, मुखाकृति सहज पुण्य-प्रसूति,
झुर्रियों में युग-युगों की सन्निहित अनुभूति।

देह पर चित्रित त्वचा की संकुचित हर रेख,
लग रही वय-पत्र पर ज्यों एक सुन्दर लेख।
या कि जीवन-भूमि पर-डण्डियों का जाल,
चल रहा वय का पथिक संध्या समय की चाल।

कौन हो इस भाँति अपने आप मे तुम लीन?
कौन हो तुम पुण्य-प्रतिमा-सी यहाँ आसीन?
कौन स्नेहाशीष की तुम मूर्ति अमित उदार?
कौन श्रद्धा-भावना ही तुम स्वयं साकार?

कौन तुम, मन में तुम्हारे कौन-सी है व्याधि?
अर्चना हित खींच लाई तुम्हें दिव्य समाधि।
है कृती वह कौन, किसका समाधिस्य कृतित्व?
वन्दना से स्वयं वन्दित, कौन वन व्यक्तित्व?

कौन माँ! ममता-मयी तुम? क्यों नयन में नीर?
उच्छ्वसित उर में तुम्हारे, कौन-सी है पीर?
पूछता हूँ मैं अकिंचन एक कवि अनजान,
भाव-मग्ना कर रहीं तुम किस व्रती का ध्यान?

`बस करो अब वत्स! अपना सुन लिया स्तुति गान,
अब नहीं अपराध आगे कर सकेंगे कान।
बात हौले से करो, स्वर को सम्हाल-सम्हाल,
सो रहा इस भूमि में बरजोर मेरा लाल।

सो रहा है यहाँ, मेरी कोख का भूचाल,
सो रहा इस भूमि से निज शत्रुओं का काल।
सो रहा है मातृ-मन का यहाँ शाश्वत गर्व,
सो रहा सुख से, मना कर वह यहाँ बलि-पर्व।

सो रहा वंशानुक्रम से पुष्ट रक्तोन्माद,
जो कि वातावरण में ढल, बन गया फौलाद।
सो रहा है यहाँ, मेरी आग का प्रिय फूल,
स्वर्ग का सुख दे रही, उसको धरा की धूल।

धूम धरती पर मचा, विद्रोह का वरदान,
यहाँ मेरे दूध का सोया अजस्र उफान।
सो गया उल्लास मेरा, सो गया आमोद,
एक माँ की गोद तज कर, दूसरी की गोद।

ओज अन्तस् का, यहाँ पर कर रहा विश्राम,
वत्स! क्या तुमको बतादूँ उस हठी का नाम?
लाल वह मेरा भगत, था सिंह ही साकार,
जन्म से ही था कहाया गया वह सरदार।

गर्जना उसकी विकट सुन, काँपते थे लाट,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
सुन लिया, क्या और परिचय रह गया कुछ शेष?
यहाँ मेरी भावना का सो रहा आवेश?''

``तनिक ठहरो माँ! हुई वरदान मेरी भूल,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
इन पगों पर ही रहे युग-युग नमित यह माथ,
फेर दो इस शीष पर माँ! स्नेह-प्रश्लथ हाथ।

सिंह जननी धन्य हो तुम, कोटि बार प्रणम्य,
धन्य निश्चय ही तुम्हारा लाल वीर अदम्य।
किन्तु माँ! शंका तनिक मेरी अभी है शेष,
बात हौले से करूँ, यह क्यों मिला आदेश?''

``अरे! इतनी-सी न समझे तुम सरल सी बात,
मानवी मन के कहाते पारखी निष्णात।
सत्य है, शंका तुम्हारी है नहीं निर्मूल,
अर्थ मेरे भाव का तुमने लिया प्रतिकूल।

वार्ता के तीव्र स्वर से जागने का खेद,
शान्ति के संकेत का मेरा नहीं यह भेद।
वार्ता का विषय कर सकता है उसे त्रस्त,
निज प्रशंसा-श्रवण का, वह था नहीं अभयस्त।

वत्स! दो बातें न की उसने कभी स्वीकारा,
स्वयं का गुण-गान, या फिर शत्रु की ललकार।
देख पाता था न मेरा लाल, आँखें लाल,
निज प्रशंसा भी उसे करती रही बे-हाल।

किन्तु तुमने पूर्ण करने स्वल्प शिष्टाचार,
था `कृती' या `व्रती' शब्दों का किया व्यवहार।
संकुचन के क्षोभ को, उसके लिए यह बात,
है बहुत छोटी, कदाचित् हो बड़ा व्याघात।

आज तक है याद मुझको एक दिन की शाम,
एक दिन आये कहीं से वे, न लूँगी नाम।
साथ उनके आ गये थे मित्र उनके एक,
वार्ता से ही प्रकट अति बुद्धि और विवेक।

प्रस्फुटित वातावरण में हास्य और विनोद,
पा रहे थे हम सभी, वह सरल निश्छल मोद।
किया उपक्रम, मैं करूँ जलपान का उपचार,
सिंह-शावक आ गया मेरे हृदय का हार।

प्रणत होकर अतिथि का, उसने किया सम्मान,
अतिथि की वाणी बनी वरदान का तूफान।
``तुम प्रणत मुझको, प्रणत हो तुम्हें सब संसार,
जियो युग-युग, तुम करो निज सुयश का विस्तार।''

देख मेरी और बोले अतिथिवर सप्रयास,
कह रहा जो बात, भाभी! तुम करो विश्वास।
है अडिग विश्वास मन में, यह तुम्हारा लाल,
विश्व में ऊँचा करेगा मातृ-भू का भाल।

आत्मा कहती, बनेगा वीर यह सम्राट,
इस धरा की दासता की बेड़ियों को काट।
पूत के लक्षण प्रकट हैं पालने में आज,
सिंहनी का सुअन होगा विश्व का सरताज।

अल्प वय, इतनी विनय, इतना पराक्रम, ओज,
सिंह-शावक सी ठवनि, ये नयन रक्तंभोज।
देह सुगठित, विक्रमी चितवन समुन्नत भाल,
शत्रुओं का शत्रु होगा यह कठोर कराल।''

अतिथिवर की बात में व्यति-क्रम हुआ तत्काल,
विनत होकर बाल ने स्वर में मधुरता ढाल।
कहा-`चाचाजी! अनय यदि मैं करूँ, हो क्षम्य,
बात मुझको लग रही अनपेक्ष और अगम्य।

कह मुझे सम्राट, देते स्वप्न का क्यों जाल?
स्वप्न में राजा बना सकते सदा कंगाल।
मातृ-भू का ही अकिंचन बन सका यदि भृत्य,
सफल समझूँगा सभी मैं साधना के कृत्य।

और यदि गुण-गान आवश्यक, निवेदन एक,
देश के सम्मान का, स्वर में रहें उद्रेक।
सुन प्रशंसा, आदमी कर्तव्य जाता भूल,
अनधिकृत श्लाघा, पतन के लिये पोषक मूल।

जो न करता निज प्रशंसा सुन कभी प्रतिवाद,
अंकुरित उर में हुआ करता प्रमत्त प्रमाद।
विकस यह अंकुर बने जब एक वृक्ष विशाल,
पतन के परिणाम का फिर कुछ न पूछो हाल।

फिर निवेदन विज्ञवर! हो क्षम्य यह व्याघात,
क्षम्य मेरी, आज छोटे मुँह बड़ी यह बात।
अनवरत अपनी प्रशंसा सुन हुआ कुछ क्षोभ,
प्रतिक्रमण का, संवरण मैं कर न पाया लोभ।'

``वार्ता का वत्स! अब मैं क्या करूँ विस्तार,
वह प्रशंसा का सदा करता रहा प्रतिकार।
शान्ति के संकेत का मेरा यही था अर्थ,
और भी शंका रही कुछ शेष सुकवि समर्थ?''

``धन्य हो माँ! और क्या शंका रहेगी शेष?
धन्य ऐसे पुत्र पाकर माँ! हमारा देश।
धन्य हूँ मैं, आज सुन कर ये प्रबुद्ध विचार,
है नहीं सामर्थ्य, जो अभिव्यक्त हो आभार।

जानकर यह बात, जिज्ञासा बढ़ी कुछ और,
किन विचारों में पला था देश का सिर-मौर?
किस तरह विकसित हुआ मन में विकट बलिदान?
माँ! करो उपकृत, सुना कुछ और भी प्रतिमान।''

वत्स तुम कितने चतुर, कितने उदार विचार,
स्वयं उपकृत का कथन कर, कर रहे उपकार।
मातृ-मन का जानते हो तुम मनोविज्ञान,
बात कर यह, कह रहे प्रमुदित मुझे मतिमान।

लाल मेरा, बालपन में था बहुत शैतान,
हम नहीं केवल,पड़ौसी भी रहे हैरान।
जब झगड़ता, साथियों के केश लेता नोंच,
चिह्न बनते गाल पर, लेता प्रकुप्त खरोंच।

फूल चुनना आग के, थे प्रिय उसे ये खेल,
घोर विपदाएँ विहँस कर लाल लेता झेल।
तोड़ता यह, फोड़ता वह, जोड़ता कुछ और,
थे कुएँ या बावड़ी सब खेलने के ठौर।

क्षमा करता, यदि कभी छोटे करें अपराध,
पर, सबल की धृष्टता का दण्ड था निर्बाध।
चौगुना भी क्यों न हो, वह माँगता था द्वन्द्व,
नम्र था व्यवहार में, संघर्ष में स्वच्छन्द।

मित्र की रक्षार्थ, वह बनता स्वयं था ढाल,
जो उसे नीचा दिखाए, किस सखी का लाल।
बाहुओं का जोर था उसके लिए उन्माद,
मोम-सा तन, किन्तु बनता द्वन्द्व में फौलाद।

स्नेह में भी, बैर में भीं, वह न था परिमेय,
दण्ड था उद्दंडता का, साधुता का श्रेय।
नीति दुश्मन की सही पर स्वजन की न अनीति,
व्यक्ति पर उसकी नहीं, व्यक्तित्व पर थी प्रीति।

और हाँ, पूछी अभी तुमने हृदय की पीर,
पूछते थे तुम, लिये मैं क्यों नयन में नीर।
तो सुनो, है सहज ही सुत, व्यथा का सन्ताप,
सुन न पाती आज मैं निज तात का संलाप।

वह न मेरे पास, मेरी मोद का श्रृंगार,
आज सूना है हृदय, खोकर हृदय का हार।
हैं तड़पते कान सुनने लाल के प्रिय बोल,
हैं कहाँ वे चूम लूँ जो मधुर स्निध कपोल।

अंक में भर लूँ जिसे, वह कहाँ कोमल गात,
वह न मेरे पास, उसकी रह गई है बात।
मातृ-मन्दिर पर हुआ अर्र्पित सुकोमल फूल,
शत्रुओं से जूझ, फाँसी पर गया वह झूल।

सांत्वना देता मुझे है लाल का सन्देश,
``शीघ्र ही स्वाधीन होगा माँ! हमारा देश।
तुम न समझो माँ! तुम्हारी गोद से मैं दूर,
तुम न समझो, आज तुम पर है विधाता क्रूर।

माँ! हमारे देश के जितने हठीले बाल,
वे तुम्हारे ही भगत हैं, वे तुम्हारे लाल।
देख छवि उनकी, किया करना मुझे तुम याद,
विसर्जन मेरा, न बन जाये तुम्हें अवसाद।

स्वर्गं भी है जिस धरा के सामने अति रंक,
जो सभी की माँ हमारी, ले रही वह अंक।
व्यर्थ जायेगा नहीं माँ! एक यह बलिदान,
है निकट स्वाधीनता का सुखद पुण्य-विहान।

मुक्ति की मंगल प्रभाती सुनें जिस दिन कान,
ले नया उत्साह, खग-कुल कर उठें कल गान।
जिस सुबह हो देश का वातावरण स्वच्छन्द,
गा उठें कवि-कण्ठ जिस दिन गीत नव, नव-छंद।

मुक्ति के दिन बाल-रवि की रश्मियों का जाल,
इस धरा पर कुंकुमी आभा अलभ्य उछाल।
पुण्य-भारतवर्ष का जिस दिन करे अभिषेक,
देश के नर-नाहरों की पूर्ण हो जब टेक।

जब उठे दीवानगी की लहर चारों ओर,
गगन-भेदी घोष चूमे जब गगन के छोर।
जब दिशाओं में तरंगित हो हृदय का हर्ष,
विश्व अभिनन्दन करे-जय देश भारतवर्ष!

तब मिलूंगा तुम्हें फूलों की सुरभि के संग,
तुम्हें किरणों में मिलूंगा मैं लिये नव-रंग।
तब पवन अठखेलियाँ कर, करे तुमको तंग,
तब समझना, ये भगत के ही निराले ढंग।

तब लगेगा माँ, दुपट्टा मैं रहा हूँ खींच,
तब लगेगा मैं तुम्हारे दृग रहा हूँ मींच।
भास परिचित स्पर्श का जब हो पुलक के साथ,
हाथ मेरा खींचने, अपना बढ़ा कर हाथ।

जब कहोगी-कौन हे रे ढीठ! तू है कौन?
तब तुम्हें उत्तर मिलेगा एक केवल मौन।
तुम चकित हो, चौंक देखोगी वहाँ सब ओर,
सुन सकोगी हर्ष-ध्वनियाँ और जय का शोर।

एक ही क्यों भगत, देखोगी अनेकों वीर,
नमित नयनों से तुम्हारे चू पडेग़ा नीर।
घुल सकेगा, धुल सकेगा रोष का उन्माद,
गर्व से प्रतिफल करोगी माँ मुझे तुम याद।

तो यही सन्देश सुत का, कर रहा परितोष,
है सराहा भाग्य मैंने, दे न विधि को दोष।
वत्स! अन्तर का बताया है तुम्हें सब हाल,
तुम बताओ, क्यों बने जिज्ञासु तुम इस काल?

``लग रहा माँ! मुझे जैसे आज जीवन धन्य,
आज मुझ-सा भाग्य-शाली कौन होगा अन्य?
कर न पाया तप कि पहले मिल गया वरदान,
पूर्ण होता दिख रहा अपना बड़ा अरमान।

भावनाओं ने हृदय से है किया अनुबन्ध,
क्रान्ति के इस देवता पर लिखूँ छन्द प्रबन्ध।
आ गया इस ओर लेने प्रेरणा मैं आज,
माँ! तुम्हारे लाल की जैसे सुनी अवाज।

लगा जैसे कह रहा हो सिंह आज दहाड़,
लेखनी से कवि निराशा का कुहासा फाड़।
तुम सुकवि हो, मिला वाणी का तुम्हें वरदान,
तुम जगा दो निज स्वरों से देश में बलिदान।

लेखनी की नोंक में भर दो हृदय की शक्ति,
और कह दो धर्म केवल है धरा की भक्ति।
देश की मिट्टी इधर, उस ओर सौ साम्राज्य,
ग्रहण मिट्टी को करो, साम्राज्य हों सौ त्याज्य।

शीष पर धर देश की मिट्टी, करो प्रण आज,
प्राण देकर भी रखेंगे, हम धरा की लाज।
सह न पायेंगे कभी हम, देश का अपमान,
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।

जो उठाये इस हमारी मातृ-भू पर आँख,
रोष की ज्वाला भने, हर फूल की हर पाँख।
भूल कर भी जो छुए इस देश का सम्मान,
कड़कती बिजली बने हर कली की मुस्कान।

लक्ष्य इस आदर्श का, सब को बता दो आज,
सो रहे जो, कवि! जगा दो दे उन्हें आवाज।
आज कवि की लेखनी उगले कुटिल अंगार,
साधना का, रक्त की लाली करे श्रृंगार।

गर्जना का घोष हो, हर शब्द की झंकार,
रोष की हुँकार हो गाण्डीव की टंकार।
शान्ति का सरगम बने संघर्ष का उत्कर्ष,
आज भारतवर्ष का हर वीर हो दुर्द्धर्ष।

कवि! भरो पाषाण में भी आज पागल प्राण,
चाहता युग कवि-स्वरों का आज सत्य प्रमाण।
कर सके यह, लेखनी का तो सफल अस्तित्व,
सफल, वाणी का मिला जो आज तुमको स्वत्व।

``माँ! इसी सन्देश की उर ने सुनी आवाज,
खींच लाई है यही आवाज मुझको आज।
क्रांति के जो देवता, मेरे लिये आराध्य,
काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य।

और यह सौभाग्य मेरा, जो यहाँ तुम प्राप्त,
क्या न शुभ संकल्प का संकेत यह पर्याप्त?
तुम करो माँ! आज मुझ पर और भी उपकार,
सिंह-सुत की वार्ता कह, आज सह-विस्तार।''

``वत्स! तुमने विवश मुझको कर दिया है आज,
रह न पायेगा हृदय में आज कोई राज।
पर समय का भी हमें रखना पड़ेगा ध्यान,
क्यों न घर चल हम विचारों का करें प्रतिपादन?

दे सकूँगी क्या तुम्हें आतिथ्य का आह्लाद?
और रूखी रोटियों में क्या मिलेगा स्वाद?
किन्तु तुमको पास बैठा, स्नेह का ले रंग,
लाल के चित्रित करूँगी, मैं अनेक प्रसंग।''

``माँ! तुम्हारा मान्य है साभार यह प्रस्ताव,
रोटियाँ रूखी भले, रूखा न होगा भाव।
वस्तु में क्या, भावना में ही निहित आनन्द,
काव्य शोभित भाव से, हो भले कोई छन्द।

तो चलो माँ! आज मुझको दो दिशा का दान,
आज मेरी भावनाओं को करो गतिवान।
मुक्त स्नेहाशीष का खोलो अमित भण्डार,
विश्व-जीवन को बने आलोक, माँ का प्यार।''
-०००-

04 अक्तूबर, 2005

चन्द्र शेखर आजाद महाकाव्य

(१)
चन्द्रशेखर आज़ाद महाकाव्य
आत्म दर्शन


चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,
फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।
कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,
चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।

विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,
नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।
मैं गुलामी का कफन, उजला सपन स्वाधीनता का,
नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
आँसुओं को, तेज मैं तेजाब का देन चला हूँ,
जो रही कल तक पराजय, आज उस पर जीत हूँ मैं।
मैं प्रभंजन हूँ, घुटन के बादलों को चीर देने,
बिजलियों की धड़कनों का कड़कता संगीत हूँ मैं।
सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा,
जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा।
खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी,
इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा।
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों,
मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ।
मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती,
मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता
इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ।
तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो,
गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को,
चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ।
जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है,
वे न भुखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों
छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम।
मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ,
स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ,
आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही।
हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे,
तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा,
सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए।
चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित,
यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली,
वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं,
उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे,
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ।
यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे,
यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती,
यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे।
यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे,
यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर,
हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ।
हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी,
हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।
-०००-


( २)
क्रांति -दर्शन
कौन कहता है कि हम हैं सरफिरे, खूनी, लुटेरे?
कौन यह जो कापुस्र्ष कह कर हमें धिक्कारता हैं?
कौन यह जो गालियों की भर्त्सना भरपेट करके,
गोलियों से तेज, हमको गालियों से मारता है।
जिन शिराओं में उबलता खून यौवन का हठीला,
शान्ति का ठण्डा जहर यह कौन उनमें भर रहा है?
मुक्ति की समरस्थली में, मारने-मरने चले हम,
कौन यह हिंसा-अहिंसा का विवेचन कर रहा हैं?
कौन तुम? तुम पूज्य-पूज्य बापू? राष्ट्र-अधिनायक हमारे,
तुम बहिष्कृत कर रहे, ये क्रान्तिकारी योजनाएँ?
आत्म-उत्सर्जन करें, स्वाधीनता हित हम शलभ-से,
और तुम कहते, घृणित हैं ये सभी हिंसक विधाएँ।
तो सुनो युगदेव! यह मैं चन्द्रशेखर कह रहा हूँ,
सत्य ही खूनी, लुटेरे और हम सब सरफिरे हैं।
दासता के घृणित बादल छा गए जब से धरा पर,
हम उड़ाने को उन्हें बनकर प्रभंजन आ घिरे हैं।
सत्य ही खूनी कि हमको खून के पथ का भरोसा,
खून के पथ पर सदा स्वाधीनता का रथ चला है।
युद्ध के भीषण कगारे पर अहिंसा भीस्र्ता है,
मुक्ति के प्यासे मृगों को इन भुलावे ने छला हैं।
हड्डियों का खाद देकर खून से सींचा जिसे हैं,
मुक्ति की वह फसल, मौसम के प्रहरों में टिकी हैं।
प्रार्थनाओं-याचनाओं ने संवारा जिस फसल को,
वह सदा काटी गई, लूटी गई सस्ती बिकी है।
प्रार्थनाओं-याचनाओं से अगर बचती प्रतिष्ठा,
गजनवी महमूद, तो फिर मूर्ति-भंजक क्यों कहाता?
तोड़ता क्यों मूर्तियाँ, क्यों फोड़ता मस्तक हमारे,
क्यों अहिंसक खून वह निदोंष लोगों का बहाता?
युद्ध के संहार में, हिंसा-अहिंसा कुछ नहीं है,
मारना-मरना, विजय का मर्म स्वाभाविक समर का।
युद्ध में वीणा नहीं, रणभेरियाँ या शंख बजते,
युद्ध का है कर्म हिंसा, है अहिंसा धर्म घर का।

कर रहे है युद्ध हम भी, लक्ष्य है स्वाधीनता का,
खून का परिचय, वतन के दुश्मनों को दे रहे हैं।
डूबते-तिरते दिखाई दे रहे तुम आँसुओं में,
खून के तूफान में, हम नाव अपनी खे रहे हैं।

मंन्त्र है बलिदान, जो साधन हमारी सिद्ध का है,
खून का सूरज उगा, अभिशाप का हम तम हटाते।
जिस सरलता से कटाते लोग हैं नाखून अपने,
देश के हित उस तरह, हम शीष हैं अपने कटाते।
स्वाभिमानी गर्व से ऊँचा रहे, मस्तक कहाता,
जो पराजय से झुके, धड़ के लिए सर बोझ भारी।
रोष के उत्ताप से खोले नहीं, वह खून कैसा,
आदमी ही क्या, न यदि ललकार बन जाती कटारी।
इसलिए खूनी भले हमको कहो, कहते रहो, हम,
ताप अपने खून का ठण्डा कभी होने न देगे।
खून से धोकर दिखा देंगे कलुष यह दासता का,
हम किसी को आँसुओं से दाग यह धोने न देगे।
तुम अहिंसा भाव से सह लो भले अपमान माँ का,
किन्तु हम उस आततायी का कलेजा फाड़ देंगे।
दृष्टि डालेगा अगर कोई हमारी पूज्य माँ पर ,
वक्ष में उसके हुमक कर तेज खंजर गाड़ देगे।
मातृ-भू माँ से बड़ी है, है दुसह अपमान इसका,
हैं उचित, हम शस्त्र-बल से शत्रु का मस्तक झुकाएँ।
रक्त का शोषण हमारा कर रहा जो क्रूरता से,
खून का बदला करारा खून से ही हम चुकाएँ।
हैं अहिंसा आत्म-बल, तुम आत्म-बल से लड़ रहे हो,
शस्त्र-बल के साथ हम भी आत्म-बल अपना लगते।
शान्ति की लोरी सुना कर, तुम सुलाते वीरता को,
क्रांति के उद्घोष से हम बाहुबल को हैं जगाते।
आत्म-बल होता, तभी तो शस्त्र अपना बल दिखाते,
कायरों के हाथ में हैं शस्त्र बस केवल खिलौने।
मारना-मरना उन्हें है खेल, जिनमें आत्म-बल है,
आत्म-बल जिनमें नहीं हैं, अर्थियाँ उनको बिछौने।
और हाँ तुमने हमें पागल कहा, सच ही कहा है,
खून की हर बूँद में उद्दाम पागलपन भरा है।
हम न यौवन में बुढ़ापे के कभी हामी रहे हैं,
छेड़ता जो काल को, हम में वही यौवन भरा है।
होश खोकर, जोश जो निर्दोष लोगों को सताए,
पाप है वह जोश, ऐसे जोश में आना बुरा है।
यदि वतन के दुश्मनों का खून पीने जोश आए,
इस तरह के जोश से फिर होश में आना बुरा है।

बढ़ रहे संकल्प से हम, लक्ष्य अपने सामने है,
साथ है संबल हमारे, वतन की दीवानगी का।
देश का सौदा, नहीं हम कोश उनके लूटतें हैं।
काँपते है नाम से, हम होश उनके लूटते हैं।
हम नहीं हम, आज हम भूकम्प है-विस्फोट भी हैं,
खून में तूफान की पागल रवानी घुल गई है।
आज शोले-से भड़कते हैं सभी अरमान दिल के,
आज कुछ करके दिखाने को जवानी तुल गई है।
`सरफरोशी की तमन्ना' से उठे हम सरफिरे कुछ,
मस्तकों का मोल, देखें कौन है कितना चुकाता।
देखना हैं,रक्त किसकी देह में गाढ़ा अधिक है,
देखना है, कौन किसका गर्व मिट्टी में मिलता।
हम, दमन के दाँत पैने तोड़ने पर तुल गए हैं,
वक्ष ताने हम खड़े, यम से नहीं डरने चले हैं।
खेल हम इसको समझते, मौत यह हौआ नहीं है,
मौत से भी आज दो-दो हाथ हम करने चले हैं।
जो कफन बाँधे, हथेली पर रखे सर कूद पड़ते,
मौत हो या मौत का भी बाप, वे डरते नहीं हैं।
वीर मरते एक ही हैं बार जीवन में, निडर हो,
कायरों की भाँति सौ-सौ बार वे मरते नहीं हैं।
क्या हुआ दो-चार या दस-बीस हैं हम, हम बहुत हैं
हम हजारों और लाखों के लिए भारी पडेग़े।
सिंह-शावक एक, जैसे चीरता दल गीदड़ों के
हम उसी बल से तुम्हारी छातियों पर जा चढ़ेंगे।
दूध माँ का, आज अपनी आन हमको दे रहा है,
शक्ति माँ के दूध की अब हम दिखा कर ही रहेंगे।
नाचना है नग्न होकर, पीट कर जो ढोल अपना,
सभ्यता का सबक हम उसको सिखाकर ही रहेंगे।
आज यौवन की कड़कती धूप देती है चुनौती,
हम किसी के पाप की छाया यहाँ टिकने न देंगे।
मस्तकों का मोल देकर, हम खरीदेंगे अमरता,
देश का सम्मान, मर कर भी कभी बिकने न देगें।
गर्जना कर, फिर यही संकल्प हम दुहरा रहे हैं,
हम, वतन की शान को-अभिमान को जिन्दा रखेंगे।
देश के उत्थान हित, बलिदान को जिन्दा रखेंगे,
खून के तूफान हिन्दुस्तान को जिन्दा रखेंगे।
और जननायक! भले ही तुम हमें अपना न समझो,
तुम भले कोसो, हमारे आज बम-विस्फोट को भी
सह रहे आघात हम जैसे विदेशी राज-मद के,
झेल लेंगे प्राण अपनों की करारी चोट को भी।
किन्तु दुहरी मार भी विचलित न हमको कर सकेगी,
चोट खाकर और भडकेंगी हमारी भावनाएँ,
और खोलेगा हमारा खून, मचलेगी जवानी,
और भी उद्दण्ड होगी क्रांतिकारी योजनाएँ।
बम हमारे, दुश्मनों के गर्व को खाकर रहेंगे,
दासता के दुर्ग को, विस्फोट इनके तोड़ देगे।
और पिस्तौलें हमारी, गीत गायेंगी विजय के,
वज्र-दृढ़ संकल्प, युग की धार को भी मोड़ देगे।
अब निराशा का कुहासा पथ न धूमिल कर सकेगा,
क्रांति की हर किरण, आत्मा का उजाला बन गई है।
आज केवल ब म नहीं हैं, प्राण भी विस्फोट करते,
शत्रु के संहार को, हर साँस ज्वाला बन गई है।
-०००-
( ३)
भावरा
ग्राम-धरा
मंजरित इस आम्र-तरु की छाँह में बैठो पथिक! तुम,
मैं समीरण से कहूँ, वह अतिथि पर पंखा झलेगा।
गाँव के मेहमान की अभ्यर्थना है धर्म सबका,
वह हमारे पाहुने की भावनाओं में ढलेगा।
नागरिक सुकुमार सुविधाएँ, सुखद अनुभूतियाँ बहु,
दे कहाँ से तुम्हें सूखी पत्तियों का यह बिछावन।
आत्मा की छाँह की, पर तुम्हें शीतलता मिलेगी,
ग्राम-अन्तर की मिलेगी भावना पावन-सुहावन।
और परिचय मैं बता दूँ, भावरा कहते मुझे सब,
जो घुमड़ती ही रहे, उस याद जैसा गाँव हूँ मैं।
छोड़ जाता जो समय के वक्ष पर दृढ़-चिह्न अपना,
अंगदी व्यक्तित्व का अनपढ़ हठीला पाँव हूँ मैं।
सभ्यता की वर्ण-माला की लिखी पहली लिखावट,
सुभग मंगल तिलक-सा हूँ, संस्कृति के भाल पर मैं।
हो रहा संकोच, कैसे मैं बखानूँ रूप अपना,
एक तिल जैसा हुआ प्रस्थित प्रकृति के गाल पर मैं।
गिरि-शिखरियों के सहुवान सुखद आँगन में अवस्थित,
छू रही नभ को हठीली विंध्य-पर्वत की भूजाएँ।
लग रह, जैसे प्रकृति के पालने में झूलता मैं,
गगन के छत से बँधी ये डोरियाँ गिरि-मेखलाएँ।
या कि माँ की गोद में, मैं दुबक कर बैठा हुआ-सा,
माँगती मेरे लिए वह, हाथ ऊँचे कर दुआएँ।
या पिलाने दूध, आँचल ओट माँ ने कर लिया हो,
ले बलैंया, टालती हो वह सभी मेरी बलाएँ।
या कि नटखट एक बालक ओट लेकर छिप गया हो,
माँ प्रकट हो, उछल औचक हूप! कर उसको डराने।
चौंकती सी देख उसको, डर गई! कहकर चिढ़ाने,
डाल गलबहियाँ, विजय के गर्व से फिर खिलखिलाने।
और अब इस ओर देखो, ताल यह जल से भरा जो,
चमकता ऐसे, चमकता जिस तरह श्रम का पसीना।
या कि पर्वत-श्रृंखला की प्रिय अँगूठी में जड़ा हो,
जगमगाता शुभ्र शुभ अनमोल सुन्दर-सा नगीना।
या कि वृत्ताकर दर्पण, हो खचित वर्तुल परिधि में,
शैल-मालाएँ सँवर कर रूप इसमें झाँकती हों।
स्व्च्छ, जैसे दूधिया चादर बिछाई हो किसी ने,
फूल-पुरइन, उँगलियाँ जैसे सितारे टाँकती हों।
देखते हो तुम पथिक! तस्र्वृन्द अपने पास ही जो,
ये सुकृत जैसे, समय अनुकूल फलते-फूलते हैं।
झूमने लगते कभी फल-भार के उन्माद से ये,
चढ़ समीरण के हिडोले पर कभी ये झूलते हैं।
रात है इन पर उतरती, साधना की शान्ति जैसी,
ये उजाले दिन कि जैसे तेज हो तप का विखरता।
शान्ति मन में, पर यहाँ संघर्ष जीवन में निरन्तर,
कर्म की आराधना से, मन यहाँ सब का निखरता।
ग्राम-वासी लोग, जैसे साधना-रत कर्मयोगी,
सन्त जैसे सरल मन, अवधूत जैसे आदिवासी।
पुण्य के प्रति नित विचारों में प्रगति मिलती यहाँ पर,
और मिलती पाप के प्रति यहाँ जीवन में उदासी।
ग्राम-घर, ऊँचे भवन कुछ, सण्कुचित-सी कुछ झुपड़िएँ,
बहुरिएँ, ज्यों ससुर जी को देखकर शरमा गई हों।
कुछ अटरिएँ धवल, शोभित हैं घरौदों में कि जैसे,
बाल-मुख में दूध की कुछ-कुछ दँतुलिएँ आ गई हों।
-०००-
( ४)
बावली माँ
वर्ण केवल एक, जिस पर वर्णमाला ही निछावर,
शब्द केवल एक जिसमें अर्थ का सागर भरा है।
ऊष्मित ममता, अधिक व्यापक गगन की नीलिमा से
दिव्य वह अस्तित्व माँ सहन-शीला धरा है।
योग की तय-साधना से कम न पावन त्याग माँ का,
ज्वार सागर का, न पागल मातृ-उर के ज्वार-सा है।
और भावो के कई उपमान मिल सकते हमें हैं,
किन्तु कोई प्यार दुनिया का न, माँ के प्यार-सा है।
छू न सकतीं मातृ-मन को विश्व की ऊँचाईयाँ सब,
मातृ-उर से अधिक कोई किन्तु सिन्धु भी गहरा नहीं है।
पुत्र के तन पर न रोया एक ऐसा सकेगा,
मातृ-ममता का सजग जिस पर कड़ा पहरा नहीं है।
विश्व की प्रत्येक माँ, विधि की अनोखी एक रचना,
भावना प्रत्येक माँ की, एक साँचे में ढली है।
राग की, अनुराग की, तप-त्याग की प्रतिमूर्ति माँ है,
मानबी, देवी, मगर संतान हित माँ बावली है।
बावली माँ एक रहती थी यहाँ भी पथिक पाहुन,
छाँह पलकों की किए निज पूत को वह पालती थी।
चन्द्रशेखर चन्द्र-माँ के भाग्य-नभ का चन्द्रमा था,
ढाल बनकर लाल की वह सब बलायें टालती थी।
एक रोयाँ भी कभी दुखता दिखे यदि लाड़ले का,
अंक में सुत, रात आँखों में लिये वह जागती थी।
पल्लुओं से देव-द्वारे झाड़ती, माथा रगड़ती,
वह मनाती थी मनौती, विकल घर-घर भागती थी।
एक क्यों, आते कई दिन, जब आहार होता,
लाल को ममतमायी, भूखा कभी सोने न देती
काट लेती दिन, अभावों की चुनरिया ओढ़कर वह,
किन्तु आँखों के सितारे को दुखी होने न देती।
पर वही माँ दिन थी खिन्न, जब भोजन परोसा,
बैठ मेरे लाड़ले! खाले तनिक, वह कह न पाई।
चन्द्रशेखर सकपकाया देखता माँ का मलिन मुख,
लांघ संयम के किनारे, बढ़ चली माँ की स्र्लाई।
हिचकियों की दीर्घ कारा से हुई जब मुक्त वाणी,
सिसकियों ने फुसफुसाया, चाँद तू मेरा सलौना।
आज मोहन सेप कहूँ कैसे कि मोहन-भोग खाले,
जब कि रूखा और सूखा, है बना भोजन अलोना।
ला रही थी मैं पड़ौसिन से नमक, पर ला न पाई,
लाल! तेरे पूज्य बापू ने उसे वापिस कराया।
तड़प कर बोले, भले भूखे रहें चिन्ता नहीं कुछ,
माँग कर खाकर जियें हम, इसलिए जीवन न पाया।
माँ! दुखी मत हो कि तेरा स्नेह षडरस से अधिक है,
मधुर व्यंजन समझ यह भोजन अलोना खा सकूँगा।
मैं पिता के स्वाभिमानी शीष को झुकने न दूँगा,
आन अपने वंश की मैं शान से अपना सकूँगा।
आज तेरे स्नेह कै सौगन्ध खाकर कह रहा माँ!
गर्म मेरा खून, तेरे दूध का सम्मान होगा।
मैं अभावों से लडूँग़ा, और लड़कर जी सकूँगा,
साथ स्नेहाशीष तेरा, काल भी वरदान होगा।
और उस दिन तीन दिन फिर और था भोजन अलोना
लड़कियाँ माँ ने बटोरी, बेच उनको नमक आया।
पर किसी को खेद किंचित भी नहीं इस हाल पर था,
बन गया था घर किला, यह भेद बाहर जान पाया।
किन्तु निर्धनता अकेली, थी नहीं माँ की परीक्षा,
भाग्य पर उसके भयानक एक पर्वत और टूटा।
जो हृदय का हार प्रिय, आधारजीवन का सदृढ़ था,
हाय रे दुर्भाग्य! उस आधार का भी साथ छूटा।
भाग्य-नभ का चन्द्र, उसकी दृष्टि से ओझल हुआ था,
कर दिया गृह-त्याग सुत ने, माँ वियोगिन हो गई थी।
छटपटाती-तड़पती वह मीन हो जल-हीन जैसे,
खो गई थी प्राण-निधि, चिर वेदना नह बो गई थी।
बस गया जा निर्धना का नयन-धन वाराणसी में,
चन्द्रशेखर गंग-तट पर ज्ञान-घट भरने गया था।
क्या पता माँ को कि गंगाजल अनल-प्रेरक, बनेगा,
जानती कैसे कि उसका लाल क्या करने गया था।
एक ही विश्वास में अटकी हुई थीं भावनाएँ,
लौट आएगा किसी दिन, गोद का श्रृंगार उसका।
अर्चना, आशीष अहरह साधना-आराधना में,
खप रहीं थीं वृद्ध साँसे, तप रहा था प्यार उसका।
जेठ की तपती दुपहरी में बबंडर घूमता जब,
लाल की अनुहार लख, वह भेंटने उसको लपकती।
किन्तु सूखे पात-सा कृश-गात क्या आघात सहता,
वात-चुक्रित देह धरती पर पके फल-सी टपकती।
झूमते गजराज-से, जब सघन पावस-दूत घिरते,
सिंह-सुत की विविध आकृतियाँ उसे दिखतीं घनों में।
गर्जना का भान होता, क्रद्ध जब विद्युत तड़कती,
तैरती सुधियाँ सुअन की इन्द्र-धनुषी चितवनों में।
जब शरद का चन्द्र उगता, देखती थी एकटक वह,
चाहती, वह गोद में उसके उछल कर बैठ जाए।
आज किस वन पर हुआ धावा, उजाड़ा कौन उपवन,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जा खिलाना।
चिन्दियाँ कुछ औढ़नी से फाड़ चन्दा को दिखाती
जीर्ण ले-ले,तू नये कुछ वस्त्र चन्टू को सिलाना,
याद तो होगा, तुझे उसने सगा मामा बनाया,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जो खिलाना।
स्वर्ण-किरणों का बिछाता जाल जब हेमन्त का रवि,
सुधि उमड़ती, दशहरे, पर लाल सोना लूटता था।
हौसला किसका, लगा कर होड़ उससे तेज दौडे,
छोड़कर पीछे सभी को, तीर-सा वह छूटता था।
जब गली में शोर होता, झगड़त बालक परस्पर,
जब किसी के चीखने कल स्वर उसे पड़ता सुनाई।
भास होता, आज चन्दर ने किसी को धर दबोचा,
वह छड़ी लेकर लपकती, कोसती, उसकी ढिठाई।
जब शिशिर के गीत में वह देखती बालक ठिठुरते,
याद करती, चन्द्र कैसा निर्वसन हो घूमता था।
ढेर सूखी पत्तियों का जब सखा उसके जलाते,
फाँदता लपटें, कभी उनके शिखर वह घूमता था।
आग-सी वन में लगा उन्मत जब टेसू दहकते,
सुधि सताती, ढेर सारी डालियाँ वह तोड़ लाता।
रंग केसरिया बनाता, फूल टेसू के गला कर,
खूब होली खेलता, जो भी निकलता वह भिगाता।
लाड़ले की विविध लीलाएँ उसे जब याद आतीं,
कौंध जाती वेदना, कस कलेजा थाम लेती।
ज्योति आँखों की भटकती थी अँधेरे के वनों में,
छोड़ती निश्वास, अपने लाल का वह नाम लेती।
याचना करती, कुशल उसकी मना, अशरण-शरण प्रभु
लौट आए लाल मेरा, युक्ति वह उसको सिखाना।
मैं अकेली ही बहुत हूँ झेलने दास्र्ण व्यथाएँ
तू किसी माँ को कभी दुर्दिन नहीं ऐसे दिखाना।
-०००-
(५)
वाराणसी
लहरें
उच्छल गंगा का हिल्लोलित अन्तर है,
भावना प्रगति की मानों हुई प्रखर हैं।
लहरें हैं, जो स्र्कने का नाम न लेती,
तटकी बांहों में वे विश्राम न लेती।
बढ़ते जाने की उनमें होड़ लगी है,
मंत्रों में जैसे अद्भुत शक्ति जगी है।
हर लहर, लहर को आगे ठेल रही है,
हर लहर, लहर की गति को झेल रही है।
बढ़ना, बढ़ते जाना सक्रिय जीवन है,
तट से बँध कर रह जाना घुटन-सड़न है।
जो कूद पड़ा लहरों में, पार हुआ है,
जो जूझ पड़ा, सपना साकार हुआ है।
जो लीक पुरातनता की छोड़ न पाया,
जिसका बल युग-धारा को मोड़ न पाया।
वह मानव क्या, जो बन्धन तोड़ न पाया,
जो अन्यायों के घट को फोड़ न पाया।
ये लहरें हैं, आता है इन्हें लहरना
बड़ने की धुन में भाता नहीं ठहरना।
तुन कौन? यहाँ जो गुमसुम बैठे तट पर,
निश्चल निष्क्रिय, जीवन के इस पनघट पर।
देखो जलधारा पर तिरती नौकाएँ,
जीवन-धारा पर तिरती अभिलाषाएँ।
उथलें में कुछ गहरे में नहा रहे हैं,
अपने कल्मष गंगा में बहा रहे हैं।
कछुए कुलबुल कर रहे कामनाओं से,
सुछ डुबे हैं अवदमित वासनाओं से।
कुछ दानी उनको दाने चुगा रहे हैं,
पाथेय पुण्य के अंकुर उगा रहे हैं।
घाटों पर जाग्रत जीवन मचल रहा है,
खामोशी को कोलाहल निगल रहा है।
नर-नारी बालक-वृद्ध युवा आए हैं,
वे अपनी वय की साध साथ लाए हैं।
बच्चे, बचपन के खेलों पर ललचाए,
बच्चों के बाबा, पुण्य कमाने आए।
क्या बात कहें उनकी जिनमें यौवन है,
छायावादी कविता-सी हर धड़कन है।
यौवन की साँसों में हैं सुमन महकते,
यौवन सागर है, शांत नहीं यह तट है।
यौवन, अभिलाषाओं का वंशीवट है,
यौवन रंगीन उमंगों का पनघट है।
यौवन आता तो जीवन ही जीवन है,
यौवन आता, बेबस हो जाता मन है।
यौवन के क्षण सपनों के हाथों बिकते,
यौवन के पाँव नहीं धरती पर टिकते।
तुम कौन, घाट से टिके हुए बैठे हो?
तुन किसके हाथों बिके हुए बैठे हो?
बिक चुका यहाँ नृप हरिश्चन्द्र-सा दानी,
रोहित-सा बेटा, तारा जैसी रानी।
तो सुनो, छलकते जीवन की मैं गगरी,
देखो, मैं बाबा विश्वनाथ की नगरी।
जो बड़भागी, वे लोग यहाँ रहते हैं,
परिचय दूँ? वाराणसी मुझे कहते हैं।
शिव के त्रिशूल पर बैठी मैं इठलाती,
मैं दैहिक, दैविक, भौतिक शूल मिटाती।
जीने वालों को दिव्य ज्ञान देती हूँ,
मरने वालों को मोक्ष-दान देती हूँ।
शंकर बाबा की कैसे कहूँ `कहानी',
उन जैसा कोई मिला न अवढर दानी।
तप की विभूति तन पर शोभित होती है,
यश-गंगा उनके जटा-जूट धोती है।
है तेज-पुंज-सा उन्नत भाल दमकता,
कहने वाले कहते हैं, चन्द्र चमकता।
वे युग का विष पीने वाले विषपायी,
अपने भक्तों को वे सदैव वरदायी।
विषयों के विषधर उन्हें नहीं डसते हैं,
जन-मंगल ही उनके मन में बसते हैं।
वे सुनते अनहद-वाद विश्व-भय-हारी,
इसलिए लोग कहते, नादिया सवारी।
वे वर्तमान के मान, भूत हैं वंश में,
अभिप्रेत भविष्यत हैं मन के तर्कंश में।
जग के विचित्र गुण-गण उनके अनुचर हैं,
वे पर्वतीय-सुषमा-पति शिव-शंकर हैं।
क्या मृग-मरीचिका कोई उसे लुभाए,
जो मृग-छाला को आसन स्वयं बनाए।
वे धूरजटी, धुन की धूनी रमते हैं,
व्यवधान विफल होते जब वे जमते हैं।
मैंने तुमको शिव का माहात्म्य बताया,
मैंने गंगा की लहरों का गुण गाया।
तुम उठो पथिक, झटको यह आत्म-उदासी,
जग से जूझो, तुम बनो नहीं संन्यासी।
गंगा की लहारों से शीतलता पाओ,
मन्दिर में बाबा के दर्शन कर आओ।
तुमको रहस्य कुछ और बताऊँगी मैं,
अपने बेटे का गौरव गाऊँगी मैं।
-०००-
(५)
वाराणसी
लहरें
उच्छल गंगा का हिल्लोलित अन्तर है,
भावना प्रगति की मानों हुई प्रखर हैं।
लहरें हैं, जो स्र्कने का नाम न लेती,
तटकी बांहों में वे विश्राम न लेती।
बढ़ते जाने की उनमें होड़ लगी है,
मंत्रों में जैसे अद्भुत शक्ति जगी है।
हर लहर, लहर को आगे ठेल रही है,
हर लहर, लहर की गति को झेल रही है।
बढ़ना, बढ़ते जाना सक्रिय जीवन है,
तट से बँध कर रह जाना घुटन-सड़न है।
जो कूद पड़ा लहरों में, पार हुआ हैं,
जो जूझ पड़ा, सपना साकार हुआ है।
जो लीक पुरातनता की छोड़ न पाया,
जिसका बल युग-धारा को मोड़ न पाया।
वह मानव क्या, जो बन्धन तोड़ न पाया,
जो अन्यायों के घट को फोड़ न पाया।
ये लहरें हैं, आता है इन्हें लहरना
बढ़ने की धुन में भाता नहीं ठहरना।
तुन कौन? यहाँ जो गुमसुम बैठे तट पर,
निश्चल निष्क्रिय, जीवन के इस पनघट पर।
देखो जलधारा पर तिरती नौकाएँ,
जीवन-धारा पर तिरती अभिलाषाएँ।
उथलें में कुछ गहरे में नहा रहे हैं,
अपने कल्मष गंगा में बहा रहे हैं।
कछुए कुलबुल कर रहे कामनाओं से,
सुछ डुबे हैं अवदमित वासनाओं से।
कुछ दानी उनको दाने चुगा रहे हैं,
पाथेय पुण्य के अंकुर उगा रहे हैं।
घाटों पर जाग्रत जीवन मचल रहा है,
खामोशी को कोलाहल निगल रहा है।
नर-नारी बालक-वृद्ध युवा आए हैं,
वे अपनी वय की साध साथ लाए हैं।
बच्चें, बचपन के खेलों पर ललचयें,
बच्चों के बाबा, पुण्य कमाने आए।
क्या बात कहें उनकी जिनमें यौवन है,
छायावादी कविता-सी हर धड़कन है।
यौवन की साँसों में हैं सुमन महकते,
यौवन सागर है, शांत नहीं यह तट है।
यौवन, अभिलाषाओं का वंशीवट है,
यौवन रंगीन उमंगों का पनघट है।
यौवन आता तो जीवन ही जीवन है,
यौवन आता, बेबस हो जाता मन है।
यौवन के क्षण सपनों के हाथों बिकते,
यौवन के पाँव नहीं धरती पर टिकते।
तुम कौन, घाट से टिके हुए बैठे हो?
तुन किसके हाथों बिके हुए बैठे हो?
बिक चुका यहाँ नृप हरिशचन्द्र-सा दानी,
रोहित-सा बेटा, तारा जैसी रानी।
तो सुनो, छलकते जीवन की मैं गगरी,
देखो, मैं बाबा विश्वनाथ की नगरी।
जो बड़भागी, वे लोग यहाँ रहते हैं,
परिचय दूँ? वाराणसी मुझे कहते हैं।
शिव के त्रिशूल पर बैठी मैं इठलाती,
मैं दैहिक, दैविक, भौतिक शूल मिटाती।
जीने वालों को दिव्य ज्ञान देती हूँ,
मरने वालों को मोक्ष-दान देती हूँ।
शंकर बाबा की कैसे कहूँ `कहानी',
उन जैसा कोई मिला न अवढर दानी।
तप की विभूति तन पर शोभित होती है,
यश-गंगा उनके जटा-जूट धोती है।
है तेज-पुंज-सा उन्नत भाल दमकता,
कहने वाले कहते हैं, चन्द्र चमकता।
वे युग का विष पीने वाले विषपायी,
अपने भक्तों को वे सदैव वरदायी।
विषयों के विषधर उन्हें नहीं डसते हैं,
जन-मंगल ही उनके मन में बसते हैं।
वे सुनते अनहद-वाद विश्व-भय-हारी,
इसलिए लोग कहते, नादिया सवारी।
वे वर्तमान के मान, भूत हैं वश में,
अभिप्रेत भविष्यत हैं मन के तर्कंश में।
जग के विचित्र गुण-गण उनके अनुचर हैं,
वे पर्वतीय-सुषमा-पति शिव-शंकर हैं।
क्या मृग-मरीचिका कोई उसे लुभाए,
जो मृग-छाला को आसन स्वयं बनाए।
वे धूरजटी, धुन की धूनी रमते हैं,
व्यवधान विफल होते जब वे जमते हैं।
मैंने तुमको शिव का माहात्म्य बताया,
मैंने गंगा की लहरों का गुण गाया।
तुम उठो पथिक, झटको यह आत्म-उदासी,
जग से जूझो, तुम बनो नहीं सन्यासी।
गंगा की लहारों से शीतलता पाओ,
मन्दिर में बाबा के दर्शन कर आओ।
तुमको रहस्य कुछ और बताऊँगी मैं,
अपने बेटे का गौरव गाऊँगी मैं।
-०००-

(६)
खूनी मेंहदी
हाँ सुनो पथिक! जो बात कह रही हूँ मैं,
कब से उसका संताप सह रही हूँ मैं।
कह देने से मन हल्का हो जाता है,
दुख का उफान फिर तल में सो जाता है।
तुम सभी जहाँ बैठे, यह वही ठिकाना,
बैठा करता था बूढ़ा एक पुराना।
सब लोग उसे पागल! पागल! कहते थे,
उसकी उत्पीड़न से आहें भरता रहता।
वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह कभी-कभी खुद पर ही झल्लाता था।
वह अपने से ही बातें करता रहता,
कुछ उत्पीड़न से आहें भरता रहता।
वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह बार-बार पत्थर पर उसे पटकता
इस तरह हाथ लोहू-लुहान हो जाता,
पागल का कुछ ठण्डा उफान हो जाता।
बढ़ गया एक दिन आत्म-दाह जब भारी,
गंगा-मैया में ही छलाँग दे मारी।
जर्ज रित देह को लहरों ने झकझोरा,
यों टूट गया साँसों का कच्चा डोरा।
चल निकलीं, जितने मुँह उतनी ही बातें,
जन-पथ पर चलती बातों की बारातें।
चर्चाओं के मंथन से अभिमत निकला,
वह पाप धो रहा था अपना कुछ पिछला।
यह पागल था पहले जल्लाद भयानक,
उसका सारा जीवन ही क्रूर कथानक।
जाने कितनों के जीवन-दीप बुझाए,
उसने जाने कितने माँ-दीप स्र्लाए।
उसके अन्तर में नहीं दया-ममता थी,
दानवी वृत्ति की अपरिसीम क्षमता थी।
जल्लाद दैत्याकार महाबल-शाली,
उसकी आँखों में चिता-ज्वाला की लाली।
उसकी गति में हत्याओं की हलचल थी,
मति में जघन्य पापों की चहल-पहल थी।
वह क्रुद्ध बाज-सा जिसके ऊपर टूटा,
तन के पिंजडे से प्राण-पखेरू छूटा।

वह दैत्य एक दिन जब अपनी पर आया,
निर्बोध एक बालक पर हाथ उठाया।
इस बाल-सिंह का नाम चन्द्रशेखर था,
जलती भट्टी का ताप लिए अन्तर था।
वह भी जन -आंदोलन में कूद पड़ा था,
शासन ने उसको इसीलिए जकड़ा था।
देखे केवल चौदह वसन्त जीवन के,
संकल्प उग्र हो गए उदित यौवन के।
वह तड़प, `बाँधो न मुझे हत्यारो'!
पन्द्रह क्या, पन्द्रह सौ कोड़े तुम मारो।
मैं जहाँ खड़ा हूँ, तिलभर नहीं हिलूँगा,
मैं हर कोडे पर हँसता हुआ मिलूँगा।
जो दण्ड मिले वरदान, समझ ले लूँगा,
आघात भयंकर फूल समझ झेलूँगा।
जो मार पडेग़ी उसका स्वाद चखूँगा,
जो दूध पिया है उसकी लाज रखूँगा।
यह कह वह बालक खड़ा हो गया तनकर,
जल्लाद झपट बैठा सक्रोश उफन कर।
पूरी ताकत से एक हाथ दे मारा,
बालक बोला गाँधी की जय का नारा।
फिर और जोर से उसने हाथ जमाया,
भारत-माता की जय का नारा आया।
क्रोधांध दैत्य ने हाथ तीसरा छोड़ा,
कुछ खाल खींच कर ले आया वह कोड़ा।
चौथा कोड़ा हो गया खून से तर था,
विचलित किंचत भी नहीं चन्द्रशेखर था।
निर्वसन देह पर पडे तडातड़ कोड़े,
भरपूर हाथ उस नर-दानव ने छोडे।
कोमल काया कोड़ो से जूझ रही थी,
उसको जन-नायक की जय सूझ रही थी।
जल्लाद, हाथ कस-कस कर गया जमाता,
हर हाथ, खाल उसकी उधेड़ ले आता।
बालक ने चाहा नहीं वार से बचना,
खूनी मेंहदी की हुई देह पर रचना।
उसने अपना कोई व्रण नहीं टटोला,
वह गाँधी की-भारत माँ की जय बोला।
उस नरम उमर ने मार भंयकर खाई,
अधखिले फूल ने वज्र-शक्ति दिखालाई।
कुसुमादपि उसकी देह बनी फौलादी,
वह झेल गया आघात क्रुर जल्लादी।
लोगों के दिल पर अब उसका आसन था,
यह देख-देख ईर्ष्यालु हुआ शासन था।
हर अन्तर ही अब उसका अपना घर था,
अनुदिन उसका चिन्तन हो रहा प्रखर था।
जन-भावों पर छा गया चन्द्रशेखर था,
नक्षत्र नया आगया चन्द्रशेखर था।
कायरता का खा गया चन्द्रशेखर था
आजाद नाम पा गया चन्द्रशेखर था।
वह धरती का अनुराग लिए फिरता था,
तन पर कोड़ों के दाग लिए फिरता था।
वह स्वर में विप्लव-राग लिए फिरता था,
वह उर में जलती आग लिए फिरता था।
सहला न सका उसके घावों को गाँधी,
आ गई क्रांतिकारी भावों की आँधी।
लपटों का सरगम छिड़ा उग्र जीवन में,
वह धूमकेतु-सा निकला क्रांति-गगन में।
-०००-

(७)
काकोरी
लघुता की गुरुता
मैं शांत, मौन, गंभीर भावनाओं का स्वर,
लघु ग्राम एक, मैं दूर नगर कोलाहल से।
मैं हूँ सागर में सरिता का अस्तित्व-बोध,
मैं छिटक गया घुँघुरू,जीवन की पायल से।
बालक की जिज्ञास-माला का एक प्रश्न,
जिसका उत्तर बन जाय बड़ों की हैरानी।
जिसका जैसा जी चाहे अर्थ लगा बैठे,
मैं सन्तों की-अवधूतों की अटपट बानी।
जगमग-जगमग विस्तीर्ण सौर-मण्डल का मैं,
टिमटिम करता छोटा-सा एक सितारा हूँ।
मैं भूलभुलैयों का व्यापक निर्देश नहीं,
मैं अक्लमंद को हल्का एक इशारा हूँ।
मैं उपदेशों की परिधिहीन विस्तार नहीं,
लघु सूत्र एक, मैं चिन्तनशील मनस्वी हूँ।
मैं विधि-निषेध संयुक्त विशद साधना नहीं,
पल एक सुफल का, पहुँचे हुए तपस्वी का।
मुझ में न राज-पथ इच्छाओं से विशद विपुल,
मेरी निधियाँ हैं, तृप्ति-भावना-सी गलियाँ।
विकृतियों के स्मारक से मुझ में सौध नहीं,
मेरे कच्चे घर, गौरव की विरुदावलियाँ।
मेरी संस्कृति को, चपल सभ्यता की दासी,
उँगलियाँ थाम कर चलना नहीं सिखाती है।
मेरे विकास में पौरुष का विश्वास सजग,
मेरी लघुता, गुरुता को मार्ग दिखाती है।
संसद का करते दृश्य उपस्थित हैं अलाव,
मन्त्रालय बन जातीं मेरी चौपालें हैं।
कर्मठ किसान उत्पादन का लड़ते चुनाव,
मत-पत्र बना करतीं गेहूँ की बालें हैं।
मेरी सम्पति, बन्दिनी नहीं कोषालय की,
बिखरी रहती है वह खेतों-खलिहानों में।
मेरी गरिमा न अनावृत-सी है नागरिका,
शोभित होती है वह धानी परिधानों से।
बचपन चौकड़ियाँ भरता हुआ चला जाता,
यौवन का चढ़ता रंग चटखती तीसी है।
दूल्हा-सा सजता चना गुलाबी सेहरे में,
उन पर सवार नादान उमर पच्चीसी है।
सर-सर करती है सरसों पवन-झकोरों से,
मुख पर मल दी, मानों विवाह की हल्दी है।
छेड़ती उसे अरहर, 'गोरी कुछ ठहर और`
प्रियतम घर जाने की ऐसी क्या जल्दी है।`
रानी-सी पुजती ज्वार, छत्र धारण करके,
चम-चम मोती-से दाने सब मन हरते।
मक्का के भुट्टे चँवर लिए तैयार खड़े,
रजगिरा बाजरा झुक-झुक अभिवादन करते।
मैं कैसे पूरा विवरण दूँ निज वैभव का,
सम्पन्न खेत, याश-गाथा-से फैले रहते।
उजले रहते लोगों के मन दर्पण जैसे,
श्रम-साधक केवल हाथ-पैर मैले रहते।
नारियाँ नहीं, देवियाँ कहें तो अच्छा है,
सच्चे अर्थों में वे सब अन्न-पूर्णाएँ।
शुभ ग्रह जैसी, वे गृह की जन्म-पत्रिका में,
वे पुरुष हाथ में प्रबल भाग्य की रेखाएँ।
उँगली की कूँची से घर की दीवारों पर,
जब करतीं वे अनगढ़ चित्रों की रचनाएँ।
तो सच मानो कृतकृत्य कला हो जाती है,
मिल पाती हैं उपयुक्त न उनको उपमाएँ।
तो मैं ऐसी जीवन्त चेतना का प्रहरी,
लघु ग्राम एक, पर बहुत बड़े दिल वाला हूँ।
मैं संघर्षो के पीठ तरे हरिमाया हूँ,
मैं गया नहीं नाजों-नखरों में पाला हूँ।
लखनवी शान, वैसे पड़ोस में ही मेरे,
पर मैंने उससे की सदैव सीना-जोरी।
क्या नाम बताना ही होगा मुझको हुजूर!
तो सुनिए, मुझको कहते हैं सब काकोरी।
जी हाँ काकोरी, मैं काकोरी ग्राम एक,
जो क्रान्ति-काल में लपटों जैसा चमक गया।
मैंने देखा धरती के दीवानों का दल,
साम्राज्यवाद की छाती पर धमक गया।
मैं धीरज से खिलवाड़ करूँगा नहीं अधिक,
क्या हुआ, किस तरह हुआ, तुम्हें बतलाता हूँ।
विश्वास सुनी बातों पर कम ही करता हूँ,
आँखों देखी ही तुमको आज सुनाता हूँ।
-०००-
( ८)
रेल की नकेल
दिनभर ने ली दिन की अपनी पूँजी समेट,
वह था बिलकुल घर जाने की तैयारी में।
रह गई शेष थी तनिक क्षीण आभा उसकी,
जैसे कुछ निधि फँस कर रह जाए उधारी में।
वह रही-सही पूँजी डूबती दिखाई दी,
था डूब रहा सूरज का लाल-लाल गोला।
देवता प्रचारित करने शिला-खण्ड गोला।
हो लेप दिया जैसे शुभ सिन्दूरी चोला।
धँस रहा क्षितिज में लाल-लाल सूरज ऐसे,
लग जाए आग, जल-पोत समन्दर में डूबे।
रोहित आभा पर तिमिर हो रहा था हावी,
नैराश्य-ग्रसित हो रही दिवाकर की ऐसे।
पंछी, दल के दल बढ़े जा रहे थे ऐसे
जाते हों जैसे श्रमिक रात की पाली के।
थी क्रांति क्षीण हो रही दिवाकर की ऐसे
शोषित हों दिन जैसे यौवन की लाली के।
वन से चर कर घर के थीं गायें लौट रहीं,
गोधूलि अधर में उठ कर ऐसी छाई थी
छू रही किनारे दो, जैसे कोई धारा,
या धरती-अम्बर की हो रही सगाई थी।
मेरी साँसों भी श्लथ थीं, दिन भर के श्रम से,
मैंने सोचा, अब मैं संध्या-वंदन कर लूँ।
प्रेरणा मिली जो जीवन के संघर्षों से,
उनका कृतज्ञता से मैं अभिनन्दन कर लूँ।
स्वर तभी सुनाई दिया मुझे कुछ छक छक छक,
दिख पड़ी धुएँ की काली रेखा भी ऐसे।
व्यक्तित्व कुटिल जब दिखता है, तब दिखता है,
अपकीर्ति चला करती आगे आगे जैसे।
आ रही रेल गाड़ी थी कोई इठलाती,
फक-फक छक-छक वह बोल बोलती थी ऐसे
कहती हो जैसे, सुनो! सुनो! लखनऊ वालो!
क्या पता तुम्हें `जबलपूर के छ:-छ: पैसे।'
लखनऊ वाले उत्तर दें, इसके पहले ही,
लग गई चाल को नजर किसी दीवाने की।
हक्की-बक्की भौंचक्की-सी वह ठिठक गइंर्,
रफ्तार समझ में आई नहीं जमाने की।
समझाने उसको क्रांतिवीर कुछ कूद पड़े,
कानों में सिंहों की भीषण गर्जना पड़ी।
हम नहीं छुएँगे जान-माल जनता का, पर,
तुम हिलो नहीं, जब तक यह गाड़ी रह खड़ी।
पिल तड़े छैनियाँ-घन ले वीर तिजोरी पर,
तो मार-मार हजमकर बैठी थी वह भारत का,
जो माल हजम कर बैठी थी वह भारत का,
सब छीन लिया, उस पर न एक कौड़ी छोड़ी।
जो कुछ भी पाया, सब समेट वे खिसक गए,
जड़ दिया तमाचा शासन के मुँह पर भारी।
तिलमिला उठे अंग्रेज बहादुर चाँटे से,
खिलखिला उठे भारत के वीर क्रांतिकारी।
मैंने देखा, वे क्रांति-वीर सब ही के सब,
यौवन-मद में मदमाते सिंह हठीले थे।
थे पुष्ट वक्ष, गर्वोन्नत मस्तक, सबलबाहु,
तेजीद्दीप्त, बलशाली और गठीले थे।
नेता तो नेता था ही, उसका क्या कहना,
अंगारों स यौवन वाला वह बिस्मिल था।
आजाद चन्द्रशेखर भी था उन्नीस नहीं,
वह आत्म-बली, संकल्पी, निडर, शेरदिल था।
वैसे जब आती उमर, सभी होते जवान,
कुछ और बात थी उस पर चढ़ी जवानी में।
संकल्प धधकते थे उसके उर में ऐसी
लग जाए जैसे आग सिन्धु के पानी में।
-०००-

–श्री कृष्ण सरल

05 जून, 2005

माँ

माँ


नहीं महाकवि और न कवि ही, लोगों द्वारा कहलाऊँ
सरल शहीदों का चारण था, कहकर याद किया जाऊँ
लोग वाह वाही बटोरते, जब बटोरते वे पैसा
भूखे पेट लिखा करता वह, दीवाना था वह ऍसा।

लोग कहें बंदूक कलम थी, वह सन्नद सिपाही था
शौर्य–वीरता का गायक वह, वह काँटों का राही था
लिख बलिदान कथाएँ वह, लोगों को आग्रह करता था
उनकी शिथिल शिराओं में, उफनाता लावा भरता था।

लोग कहें वह दीवाना था, जिसे देश की ही धुन थी
देश उठे ऊँचे से ऊँचा, मन में यह उधेड़–बुन थी
कभी किसी के मन में उसने, कुंठा बीज नहीं बोया
वीरों की यश गाथाओं से, हर कलंक उसने धोया।

मन्दिर रहा समूचा भारत,मानव उसको ईश्वर था
देश–धरा समृद्ध रहे यह, यही प्रार्थना का स्वर था
भारत–माता की अच्छी मूरत ही रही सदा मन में
महाशक्ति हो अपना भारत, यही साध थी जीवन में।

अन्यायों को ललकारा, ललकारा अत्याचारों को
रहा घुड़कता गद्दारों को, चोरों को बटमारों को।
रहा पुजारी माटी का वह, मार्ग न वह यह छोड़ सका,
हिला न पाया, कोई भी आघात न उसको तोड़ सका।
कोई भाव अगर आया तो, यही भाव मन में आया,

सरल साहित्य

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[काव्य-ग्रन्थ]
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1 बापू-स्मृति-ग्रंथ
2 मुक्ति-गान
3 स्मृति-पूजा
कवि और सैनिक (खण्ड काव्य)
बच्चों की फुलवारी
स्नेह सौरभ
काव्य कुसुम
किरण कुसुम
मुझको यह धरती प्यारी है
हेड मास्टरजी का पायजामा
महारानी अहिल्याबाई (खण्ड काव्य)
भारत का खून उबलता है
रक्त गंगा
अद्भुत कवि सम्मेलन ॥खण्ड काव्य॥
राष्ट्र भारती
काव्य मुक्ता
सरदार भगतसिंह ॥महाकाव्य॥
वतन हमारा
चन्द्रशेखर आजाद ॥महाकाव्य॥
सुभाषचन्द्र ॥महाकाव्य॥
काव्य कथानक
विवेकांजलि
राष्ट्र की चिन्ता
मौत के आँसू
शहीदों की काव्य कथाएँ
जय सुभाष ॥महाकाव्य॥
शहीद अशफाक उल्ला खाँ ॥महाकाव्य॥
जीवंत आहुति ॥खण्ड काव्य॥
राष्ट्र-वीणा
इन्कलाबी गज़लें
शहीदी गज़लें
बागी गज़लें
कौमी गज़लें
जयहिन्द गज़लें
विवेक श्री ॥महाकाव्य॥
स्वराज्य तिलक ॥महाकाव्य॥
काव्य गीता
अम्बेडकर दर्शन ॥महाकाव्य॥
बागी करतार॥महाकाव्य॥
सरल दोहावली
सरल मुक्तक
श्रृंगार गीत
सरल महाकाव्य ग्रंथावली
क्रांति गंगा
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गद्य ग्रंन्थ gggggggggggggggggggg
संस्कृति के आलोक स्तम्भ
हिन्दी ज्ञान प्रभाकर
संसार की महान आत्माएँ
संसार की प्राचीन सभ्यताएँ
विचार और विचारक ॥निबन्ध संकलन॥
देश के दीवाने
क्रान्तिकारी शहीदों की संस्मृतियाँ
शिक्षाविद् सुभाष
कुलपति सुभाष
सुभाष की राजनैतिक भविष्यवाणियाँ
नेताजी के सपनों का भारत
राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस
नेताजी सुभाष जर्मनी में
सेनाध्यक्ष सुभाष
देश के प्रहरी
बलिदान गाथाएँ
शहीदों की कहानियाँ
क्रान्तिकारियों की कहानियाँ भाग¹१
क्रान्तिकारियों की कहानियाँ भाग¹२
क्रान्तिकारियों की कहानियाँ भाग¹३
क्रान्तिकारियों की कहानिया भाग¹४
देश के दुलारे
क्रान्तिवीर
युवकों से दो-दो बातें ॥निबन्ध संकलन॥
चटगाँव का सूर्य ॥उपन्यास॥
बाधा जतीन ॥उपन्यास॥
चन्द्रशेखर आजाद ॥उपन्यास॥
जयहिन्द ॥उपन्यास॥
राजगुरु ॥उपन्यास॥
रामप्रसाद बिस्मिल ॥उपन्यास॥
यतीन्द्रनाथ दास ॥उपन्यास॥
दूसरा हिमालय ॥उपन्यास॥
कालजयी सुभाष
आजीवन क्रान्तिकारी आन्दोलन के मनोरंजक प्रसंग
क्रान्ति-कथाएँ
शहीद-चित्रावली
सुभाष या गांधी
क्रान्ति इतिहास की समीक्षा
रानी चेनम्मा
नर-नाहर नरगुन्दकर
अल्लूरी सीताराम राजू
डॉ० चंपकरमन पिल्लई
चिदम्बरम् पिल्ले
सुब्रमण्यम शिव
पद्मनाम आयंगार
वांची अय्यर
बाबा पृथ्वीसिंह आजाद
वासुदेव बलवंत फड़के
क्रान्तिकारिणी दुर्गा भाभी
करतारसिंह सराबा
रासबिहारी बोस
क्रान्तिकारियों की गर्जना ॥संस्मरण॥
अनमोल वचन ॥निबन्ध संकलन॥
जीवन-रहस्य ॥निबन्ध संकलन॥
जियो तो ऍसे जियो ॥निबन्ध संकलन॥
मेरी सृजन-यात्रा ॥निबन्ध संकलन॥
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काँटे अनियारे लिखता हूँ
अपने गीतों से गंध बिखेरूँ मैं कैसे
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।
मैं लिखता हूँ मँझधार, भँवर, तूफान प्रबल
मैं नहीं कभी निश्चेष्ट किनारे लिखता हूँ।
मैं लिखता उनकी बात, रहे जो औघड़ ही
जो जीवन–पथ पर लीक छोड़कर चले सदा,
जो हाथ जोड़कर, झुककर डरकर नहीं चले
जो चले, शत्रु के दाँत तोड़कर चले सदा।
मैं गायक हूँ उन गर्म लहू वालों का ही
जो भड़क उठें, ऍसे अंगारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।।
हाँ वे थे जिनके मेरु–दण्ड लोहे के थे
जो नहीं लचकते, नहीं कभी बल खाते थे,
उनकी आँखों में स्वप्न प्यार के पले नहीं
जब भी आते, बलिदानी सपने आते थे।
मैं लिखता उनकी शौर्य–कथाएँ लिखता हूँ
उनके तेवर के तेज दुधारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।।
जो देश–धरा के लिए बहे, वह शोणित है
अन्यथा रगों में बहने वाला पानी है,
इतिहास पढ़े या लिखे, जवानी वह कैसे
इतिहास स्वयं बन जाए, वही जवानी है।
मैं बात न लिखता पानी के फव्वारों की
जब लिखता, शोणित के फव्वारे लिखता हूँ।
मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ।
॥श्रीकृष्ण सरल॥


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सरल चेतना एक ऍसे व्यक्तित्व पर केन्द्रित है जो भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी कलम को तलवार बनाकर युद्ध में जूझता रहा। जिसने ११३ पुस्तकों का सृजन किया। जिसने अपनी पुस्तकें स्वयं के खर्चे पर प्रकाशित कराने के लिए अपनी ज़मीन ज़ायदाद बेच दी। जिसने अपनी पुस्तकें पूरे देश भर में घूम–घूम कर लोगों तक पहुँचायीं और अपनी पुस्तकों की ५ लाख प्रतियाँ बेच लीं। लेकिन अपने लिए कुछ नहीं रखा। जो धनराशि मिली वह शहीदों के परिवारों के लिए चुपचाप समर्पित करता रहा। महाकवि होने के बाद भी जिसकी यह आकांक्षा रही कि उसे कवि या महाकवि नहीं बल्कि 'शहीदों का चारण' के नाम से पहचाना जाये।
ऍसा व्यक्तित्व प्रचार का भूखा नहीं होता और न उसका प्रचार हुआ। व्यक्तिगत स्तर पर भी नहीं और शासन स्तर पर भी नहीं। लेकिन सरल चेतना पत्रिका के माध्यम से और अब जालघर के सहयोग से हमारा यह प्रयास है कि महान व्यक्तित्व के धनी, क्रान्तिकारियों के गुणगान करने और देशसेवा का व्रत लेने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महाकवि श्रीकृष्ण सरल को भारत में रहने वालों के अतिरिक्त प्रवासी भारतीय भी जान सकें और उनकी कालजयी देशभक्तिपूर्ण कविताओं को पढ़ सकें। यही हमारा विनम्र प्रयास है। आपको हमारा यह प्रयास कैसा लगा? यदि अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो हमें लगेगा कि हमारा परिश्रम सफल रहा है।
सरल जी के शब्दों में—
क्रान्ति के जो देवता, मेरे लिए आराध्य।
काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य।।
आइए प्रवेश करें सरल चेतना जालघर में–