04 अक्तूबर, 2005

चन्द्र शेखर आजाद महाकाव्य

(१)
चन्द्रशेखर आज़ाद महाकाव्य
आत्म दर्शन


चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,
फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।
कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है,
चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।

विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं,
नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं।
मैं गुलामी का कफन, उजला सपन स्वाधीनता का,
नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
आँसुओं को, तेज मैं तेजाब का देन चला हूँ,
जो रही कल तक पराजय, आज उस पर जीत हूँ मैं।
मैं प्रभंजन हूँ, घुटन के बादलों को चीर देने,
बिजलियों की धड़कनों का कड़कता संगीत हूँ मैं।
सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा,
जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा।
खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी,
इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा।
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों,
मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ।
मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती,
मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता
इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ।
तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो,
गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को,
चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ।
जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है,
वे न भुखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों
छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम।
मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ,
स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ,
आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही।
हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे,
तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा,
सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए।
चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित,
यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली,
वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं,
उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे,
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ।
यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे,
यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती,
यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे।
यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे,
यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर,
हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ।
हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी,
हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।
-०००-


( २)
क्रांति -दर्शन
कौन कहता है कि हम हैं सरफिरे, खूनी, लुटेरे?
कौन यह जो कापुस्र्ष कह कर हमें धिक्कारता हैं?
कौन यह जो गालियों की भर्त्सना भरपेट करके,
गोलियों से तेज, हमको गालियों से मारता है।
जिन शिराओं में उबलता खून यौवन का हठीला,
शान्ति का ठण्डा जहर यह कौन उनमें भर रहा है?
मुक्ति की समरस्थली में, मारने-मरने चले हम,
कौन यह हिंसा-अहिंसा का विवेचन कर रहा हैं?
कौन तुम? तुम पूज्य-पूज्य बापू? राष्ट्र-अधिनायक हमारे,
तुम बहिष्कृत कर रहे, ये क्रान्तिकारी योजनाएँ?
आत्म-उत्सर्जन करें, स्वाधीनता हित हम शलभ-से,
और तुम कहते, घृणित हैं ये सभी हिंसक विधाएँ।
तो सुनो युगदेव! यह मैं चन्द्रशेखर कह रहा हूँ,
सत्य ही खूनी, लुटेरे और हम सब सरफिरे हैं।
दासता के घृणित बादल छा गए जब से धरा पर,
हम उड़ाने को उन्हें बनकर प्रभंजन आ घिरे हैं।
सत्य ही खूनी कि हमको खून के पथ का भरोसा,
खून के पथ पर सदा स्वाधीनता का रथ चला है।
युद्ध के भीषण कगारे पर अहिंसा भीस्र्ता है,
मुक्ति के प्यासे मृगों को इन भुलावे ने छला हैं।
हड्डियों का खाद देकर खून से सींचा जिसे हैं,
मुक्ति की वह फसल, मौसम के प्रहरों में टिकी हैं।
प्रार्थनाओं-याचनाओं ने संवारा जिस फसल को,
वह सदा काटी गई, लूटी गई सस्ती बिकी है।
प्रार्थनाओं-याचनाओं से अगर बचती प्रतिष्ठा,
गजनवी महमूद, तो फिर मूर्ति-भंजक क्यों कहाता?
तोड़ता क्यों मूर्तियाँ, क्यों फोड़ता मस्तक हमारे,
क्यों अहिंसक खून वह निदोंष लोगों का बहाता?
युद्ध के संहार में, हिंसा-अहिंसा कुछ नहीं है,
मारना-मरना, विजय का मर्म स्वाभाविक समर का।
युद्ध में वीणा नहीं, रणभेरियाँ या शंख बजते,
युद्ध का है कर्म हिंसा, है अहिंसा धर्म घर का।

कर रहे है युद्ध हम भी, लक्ष्य है स्वाधीनता का,
खून का परिचय, वतन के दुश्मनों को दे रहे हैं।
डूबते-तिरते दिखाई दे रहे तुम आँसुओं में,
खून के तूफान में, हम नाव अपनी खे रहे हैं।

मंन्त्र है बलिदान, जो साधन हमारी सिद्ध का है,
खून का सूरज उगा, अभिशाप का हम तम हटाते।
जिस सरलता से कटाते लोग हैं नाखून अपने,
देश के हित उस तरह, हम शीष हैं अपने कटाते।
स्वाभिमानी गर्व से ऊँचा रहे, मस्तक कहाता,
जो पराजय से झुके, धड़ के लिए सर बोझ भारी।
रोष के उत्ताप से खोले नहीं, वह खून कैसा,
आदमी ही क्या, न यदि ललकार बन जाती कटारी।
इसलिए खूनी भले हमको कहो, कहते रहो, हम,
ताप अपने खून का ठण्डा कभी होने न देगे।
खून से धोकर दिखा देंगे कलुष यह दासता का,
हम किसी को आँसुओं से दाग यह धोने न देगे।
तुम अहिंसा भाव से सह लो भले अपमान माँ का,
किन्तु हम उस आततायी का कलेजा फाड़ देंगे।
दृष्टि डालेगा अगर कोई हमारी पूज्य माँ पर ,
वक्ष में उसके हुमक कर तेज खंजर गाड़ देगे।
मातृ-भू माँ से बड़ी है, है दुसह अपमान इसका,
हैं उचित, हम शस्त्र-बल से शत्रु का मस्तक झुकाएँ।
रक्त का शोषण हमारा कर रहा जो क्रूरता से,
खून का बदला करारा खून से ही हम चुकाएँ।
हैं अहिंसा आत्म-बल, तुम आत्म-बल से लड़ रहे हो,
शस्त्र-बल के साथ हम भी आत्म-बल अपना लगते।
शान्ति की लोरी सुना कर, तुम सुलाते वीरता को,
क्रांति के उद्घोष से हम बाहुबल को हैं जगाते।
आत्म-बल होता, तभी तो शस्त्र अपना बल दिखाते,
कायरों के हाथ में हैं शस्त्र बस केवल खिलौने।
मारना-मरना उन्हें है खेल, जिनमें आत्म-बल है,
आत्म-बल जिनमें नहीं हैं, अर्थियाँ उनको बिछौने।
और हाँ तुमने हमें पागल कहा, सच ही कहा है,
खून की हर बूँद में उद्दाम पागलपन भरा है।
हम न यौवन में बुढ़ापे के कभी हामी रहे हैं,
छेड़ता जो काल को, हम में वही यौवन भरा है।
होश खोकर, जोश जो निर्दोष लोगों को सताए,
पाप है वह जोश, ऐसे जोश में आना बुरा है।
यदि वतन के दुश्मनों का खून पीने जोश आए,
इस तरह के जोश से फिर होश में आना बुरा है।

बढ़ रहे संकल्प से हम, लक्ष्य अपने सामने है,
साथ है संबल हमारे, वतन की दीवानगी का।
देश का सौदा, नहीं हम कोश उनके लूटतें हैं।
काँपते है नाम से, हम होश उनके लूटते हैं।
हम नहीं हम, आज हम भूकम्प है-विस्फोट भी हैं,
खून में तूफान की पागल रवानी घुल गई है।
आज शोले-से भड़कते हैं सभी अरमान दिल के,
आज कुछ करके दिखाने को जवानी तुल गई है।
`सरफरोशी की तमन्ना' से उठे हम सरफिरे कुछ,
मस्तकों का मोल, देखें कौन है कितना चुकाता।
देखना हैं,रक्त किसकी देह में गाढ़ा अधिक है,
देखना है, कौन किसका गर्व मिट्टी में मिलता।
हम, दमन के दाँत पैने तोड़ने पर तुल गए हैं,
वक्ष ताने हम खड़े, यम से नहीं डरने चले हैं।
खेल हम इसको समझते, मौत यह हौआ नहीं है,
मौत से भी आज दो-दो हाथ हम करने चले हैं।
जो कफन बाँधे, हथेली पर रखे सर कूद पड़ते,
मौत हो या मौत का भी बाप, वे डरते नहीं हैं।
वीर मरते एक ही हैं बार जीवन में, निडर हो,
कायरों की भाँति सौ-सौ बार वे मरते नहीं हैं।
क्या हुआ दो-चार या दस-बीस हैं हम, हम बहुत हैं
हम हजारों और लाखों के लिए भारी पडेग़े।
सिंह-शावक एक, जैसे चीरता दल गीदड़ों के
हम उसी बल से तुम्हारी छातियों पर जा चढ़ेंगे।
दूध माँ का, आज अपनी आन हमको दे रहा है,
शक्ति माँ के दूध की अब हम दिखा कर ही रहेंगे।
नाचना है नग्न होकर, पीट कर जो ढोल अपना,
सभ्यता का सबक हम उसको सिखाकर ही रहेंगे।
आज यौवन की कड़कती धूप देती है चुनौती,
हम किसी के पाप की छाया यहाँ टिकने न देंगे।
मस्तकों का मोल देकर, हम खरीदेंगे अमरता,
देश का सम्मान, मर कर भी कभी बिकने न देगें।
गर्जना कर, फिर यही संकल्प हम दुहरा रहे हैं,
हम, वतन की शान को-अभिमान को जिन्दा रखेंगे।
देश के उत्थान हित, बलिदान को जिन्दा रखेंगे,
खून के तूफान हिन्दुस्तान को जिन्दा रखेंगे।
और जननायक! भले ही तुम हमें अपना न समझो,
तुम भले कोसो, हमारे आज बम-विस्फोट को भी
सह रहे आघात हम जैसे विदेशी राज-मद के,
झेल लेंगे प्राण अपनों की करारी चोट को भी।
किन्तु दुहरी मार भी विचलित न हमको कर सकेगी,
चोट खाकर और भडकेंगी हमारी भावनाएँ,
और खोलेगा हमारा खून, मचलेगी जवानी,
और भी उद्दण्ड होगी क्रांतिकारी योजनाएँ।
बम हमारे, दुश्मनों के गर्व को खाकर रहेंगे,
दासता के दुर्ग को, विस्फोट इनके तोड़ देगे।
और पिस्तौलें हमारी, गीत गायेंगी विजय के,
वज्र-दृढ़ संकल्प, युग की धार को भी मोड़ देगे।
अब निराशा का कुहासा पथ न धूमिल कर सकेगा,
क्रांति की हर किरण, आत्मा का उजाला बन गई है।
आज केवल ब म नहीं हैं, प्राण भी विस्फोट करते,
शत्रु के संहार को, हर साँस ज्वाला बन गई है।
-०००-
( ३)
भावरा
ग्राम-धरा
मंजरित इस आम्र-तरु की छाँह में बैठो पथिक! तुम,
मैं समीरण से कहूँ, वह अतिथि पर पंखा झलेगा।
गाँव के मेहमान की अभ्यर्थना है धर्म सबका,
वह हमारे पाहुने की भावनाओं में ढलेगा।
नागरिक सुकुमार सुविधाएँ, सुखद अनुभूतियाँ बहु,
दे कहाँ से तुम्हें सूखी पत्तियों का यह बिछावन।
आत्मा की छाँह की, पर तुम्हें शीतलता मिलेगी,
ग्राम-अन्तर की मिलेगी भावना पावन-सुहावन।
और परिचय मैं बता दूँ, भावरा कहते मुझे सब,
जो घुमड़ती ही रहे, उस याद जैसा गाँव हूँ मैं।
छोड़ जाता जो समय के वक्ष पर दृढ़-चिह्न अपना,
अंगदी व्यक्तित्व का अनपढ़ हठीला पाँव हूँ मैं।
सभ्यता की वर्ण-माला की लिखी पहली लिखावट,
सुभग मंगल तिलक-सा हूँ, संस्कृति के भाल पर मैं।
हो रहा संकोच, कैसे मैं बखानूँ रूप अपना,
एक तिल जैसा हुआ प्रस्थित प्रकृति के गाल पर मैं।
गिरि-शिखरियों के सहुवान सुखद आँगन में अवस्थित,
छू रही नभ को हठीली विंध्य-पर्वत की भूजाएँ।
लग रह, जैसे प्रकृति के पालने में झूलता मैं,
गगन के छत से बँधी ये डोरियाँ गिरि-मेखलाएँ।
या कि माँ की गोद में, मैं दुबक कर बैठा हुआ-सा,
माँगती मेरे लिए वह, हाथ ऊँचे कर दुआएँ।
या पिलाने दूध, आँचल ओट माँ ने कर लिया हो,
ले बलैंया, टालती हो वह सभी मेरी बलाएँ।
या कि नटखट एक बालक ओट लेकर छिप गया हो,
माँ प्रकट हो, उछल औचक हूप! कर उसको डराने।
चौंकती सी देख उसको, डर गई! कहकर चिढ़ाने,
डाल गलबहियाँ, विजय के गर्व से फिर खिलखिलाने।
और अब इस ओर देखो, ताल यह जल से भरा जो,
चमकता ऐसे, चमकता जिस तरह श्रम का पसीना।
या कि पर्वत-श्रृंखला की प्रिय अँगूठी में जड़ा हो,
जगमगाता शुभ्र शुभ अनमोल सुन्दर-सा नगीना।
या कि वृत्ताकर दर्पण, हो खचित वर्तुल परिधि में,
शैल-मालाएँ सँवर कर रूप इसमें झाँकती हों।
स्व्च्छ, जैसे दूधिया चादर बिछाई हो किसी ने,
फूल-पुरइन, उँगलियाँ जैसे सितारे टाँकती हों।
देखते हो तुम पथिक! तस्र्वृन्द अपने पास ही जो,
ये सुकृत जैसे, समय अनुकूल फलते-फूलते हैं।
झूमने लगते कभी फल-भार के उन्माद से ये,
चढ़ समीरण के हिडोले पर कभी ये झूलते हैं।
रात है इन पर उतरती, साधना की शान्ति जैसी,
ये उजाले दिन कि जैसे तेज हो तप का विखरता।
शान्ति मन में, पर यहाँ संघर्ष जीवन में निरन्तर,
कर्म की आराधना से, मन यहाँ सब का निखरता।
ग्राम-वासी लोग, जैसे साधना-रत कर्मयोगी,
सन्त जैसे सरल मन, अवधूत जैसे आदिवासी।
पुण्य के प्रति नित विचारों में प्रगति मिलती यहाँ पर,
और मिलती पाप के प्रति यहाँ जीवन में उदासी।
ग्राम-घर, ऊँचे भवन कुछ, सण्कुचित-सी कुछ झुपड़िएँ,
बहुरिएँ, ज्यों ससुर जी को देखकर शरमा गई हों।
कुछ अटरिएँ धवल, शोभित हैं घरौदों में कि जैसे,
बाल-मुख में दूध की कुछ-कुछ दँतुलिएँ आ गई हों।
-०००-
( ४)
बावली माँ
वर्ण केवल एक, जिस पर वर्णमाला ही निछावर,
शब्द केवल एक जिसमें अर्थ का सागर भरा है।
ऊष्मित ममता, अधिक व्यापक गगन की नीलिमा से
दिव्य वह अस्तित्व माँ सहन-शीला धरा है।
योग की तय-साधना से कम न पावन त्याग माँ का,
ज्वार सागर का, न पागल मातृ-उर के ज्वार-सा है।
और भावो के कई उपमान मिल सकते हमें हैं,
किन्तु कोई प्यार दुनिया का न, माँ के प्यार-सा है।
छू न सकतीं मातृ-मन को विश्व की ऊँचाईयाँ सब,
मातृ-उर से अधिक कोई किन्तु सिन्धु भी गहरा नहीं है।
पुत्र के तन पर न रोया एक ऐसा सकेगा,
मातृ-ममता का सजग जिस पर कड़ा पहरा नहीं है।
विश्व की प्रत्येक माँ, विधि की अनोखी एक रचना,
भावना प्रत्येक माँ की, एक साँचे में ढली है।
राग की, अनुराग की, तप-त्याग की प्रतिमूर्ति माँ है,
मानबी, देवी, मगर संतान हित माँ बावली है।
बावली माँ एक रहती थी यहाँ भी पथिक पाहुन,
छाँह पलकों की किए निज पूत को वह पालती थी।
चन्द्रशेखर चन्द्र-माँ के भाग्य-नभ का चन्द्रमा था,
ढाल बनकर लाल की वह सब बलायें टालती थी।
एक रोयाँ भी कभी दुखता दिखे यदि लाड़ले का,
अंक में सुत, रात आँखों में लिये वह जागती थी।
पल्लुओं से देव-द्वारे झाड़ती, माथा रगड़ती,
वह मनाती थी मनौती, विकल घर-घर भागती थी।
एक क्यों, आते कई दिन, जब आहार होता,
लाल को ममतमायी, भूखा कभी सोने न देती
काट लेती दिन, अभावों की चुनरिया ओढ़कर वह,
किन्तु आँखों के सितारे को दुखी होने न देती।
पर वही माँ दिन थी खिन्न, जब भोजन परोसा,
बैठ मेरे लाड़ले! खाले तनिक, वह कह न पाई।
चन्द्रशेखर सकपकाया देखता माँ का मलिन मुख,
लांघ संयम के किनारे, बढ़ चली माँ की स्र्लाई।
हिचकियों की दीर्घ कारा से हुई जब मुक्त वाणी,
सिसकियों ने फुसफुसाया, चाँद तू मेरा सलौना।
आज मोहन सेप कहूँ कैसे कि मोहन-भोग खाले,
जब कि रूखा और सूखा, है बना भोजन अलोना।
ला रही थी मैं पड़ौसिन से नमक, पर ला न पाई,
लाल! तेरे पूज्य बापू ने उसे वापिस कराया।
तड़प कर बोले, भले भूखे रहें चिन्ता नहीं कुछ,
माँग कर खाकर जियें हम, इसलिए जीवन न पाया।
माँ! दुखी मत हो कि तेरा स्नेह षडरस से अधिक है,
मधुर व्यंजन समझ यह भोजन अलोना खा सकूँगा।
मैं पिता के स्वाभिमानी शीष को झुकने न दूँगा,
आन अपने वंश की मैं शान से अपना सकूँगा।
आज तेरे स्नेह कै सौगन्ध खाकर कह रहा माँ!
गर्म मेरा खून, तेरे दूध का सम्मान होगा।
मैं अभावों से लडूँग़ा, और लड़कर जी सकूँगा,
साथ स्नेहाशीष तेरा, काल भी वरदान होगा।
और उस दिन तीन दिन फिर और था भोजन अलोना
लड़कियाँ माँ ने बटोरी, बेच उनको नमक आया।
पर किसी को खेद किंचित भी नहीं इस हाल पर था,
बन गया था घर किला, यह भेद बाहर जान पाया।
किन्तु निर्धनता अकेली, थी नहीं माँ की परीक्षा,
भाग्य पर उसके भयानक एक पर्वत और टूटा।
जो हृदय का हार प्रिय, आधारजीवन का सदृढ़ था,
हाय रे दुर्भाग्य! उस आधार का भी साथ छूटा।
भाग्य-नभ का चन्द्र, उसकी दृष्टि से ओझल हुआ था,
कर दिया गृह-त्याग सुत ने, माँ वियोगिन हो गई थी।
छटपटाती-तड़पती वह मीन हो जल-हीन जैसे,
खो गई थी प्राण-निधि, चिर वेदना नह बो गई थी।
बस गया जा निर्धना का नयन-धन वाराणसी में,
चन्द्रशेखर गंग-तट पर ज्ञान-घट भरने गया था।
क्या पता माँ को कि गंगाजल अनल-प्रेरक, बनेगा,
जानती कैसे कि उसका लाल क्या करने गया था।
एक ही विश्वास में अटकी हुई थीं भावनाएँ,
लौट आएगा किसी दिन, गोद का श्रृंगार उसका।
अर्चना, आशीष अहरह साधना-आराधना में,
खप रहीं थीं वृद्ध साँसे, तप रहा था प्यार उसका।
जेठ की तपती दुपहरी में बबंडर घूमता जब,
लाल की अनुहार लख, वह भेंटने उसको लपकती।
किन्तु सूखे पात-सा कृश-गात क्या आघात सहता,
वात-चुक्रित देह धरती पर पके फल-सी टपकती।
झूमते गजराज-से, जब सघन पावस-दूत घिरते,
सिंह-सुत की विविध आकृतियाँ उसे दिखतीं घनों में।
गर्जना का भान होता, क्रद्ध जब विद्युत तड़कती,
तैरती सुधियाँ सुअन की इन्द्र-धनुषी चितवनों में।
जब शरद का चन्द्र उगता, देखती थी एकटक वह,
चाहती, वह गोद में उसके उछल कर बैठ जाए।
आज किस वन पर हुआ धावा, उजाड़ा कौन उपवन,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जा खिलाना।
चिन्दियाँ कुछ औढ़नी से फाड़ चन्दा को दिखाती
जीर्ण ले-ले,तू नये कुछ वस्त्र चन्टू को सिलाना,
याद तो होगा, तुझे उसने सगा मामा बनाया,
दूध से कुछ भात अपने भानजे को जो खिलाना।
स्वर्ण-किरणों का बिछाता जाल जब हेमन्त का रवि,
सुधि उमड़ती, दशहरे, पर लाल सोना लूटता था।
हौसला किसका, लगा कर होड़ उससे तेज दौडे,
छोड़कर पीछे सभी को, तीर-सा वह छूटता था।
जब गली में शोर होता, झगड़त बालक परस्पर,
जब किसी के चीखने कल स्वर उसे पड़ता सुनाई।
भास होता, आज चन्दर ने किसी को धर दबोचा,
वह छड़ी लेकर लपकती, कोसती, उसकी ढिठाई।
जब शिशिर के गीत में वह देखती बालक ठिठुरते,
याद करती, चन्द्र कैसा निर्वसन हो घूमता था।
ढेर सूखी पत्तियों का जब सखा उसके जलाते,
फाँदता लपटें, कभी उनके शिखर वह घूमता था।
आग-सी वन में लगा उन्मत जब टेसू दहकते,
सुधि सताती, ढेर सारी डालियाँ वह तोड़ लाता।
रंग केसरिया बनाता, फूल टेसू के गला कर,
खूब होली खेलता, जो भी निकलता वह भिगाता।
लाड़ले की विविध लीलाएँ उसे जब याद आतीं,
कौंध जाती वेदना, कस कलेजा थाम लेती।
ज्योति आँखों की भटकती थी अँधेरे के वनों में,
छोड़ती निश्वास, अपने लाल का वह नाम लेती।
याचना करती, कुशल उसकी मना, अशरण-शरण प्रभु
लौट आए लाल मेरा, युक्ति वह उसको सिखाना।
मैं अकेली ही बहुत हूँ झेलने दास्र्ण व्यथाएँ
तू किसी माँ को कभी दुर्दिन नहीं ऐसे दिखाना।
-०००-
(५)
वाराणसी
लहरें
उच्छल गंगा का हिल्लोलित अन्तर है,
भावना प्रगति की मानों हुई प्रखर हैं।
लहरें हैं, जो स्र्कने का नाम न लेती,
तटकी बांहों में वे विश्राम न लेती।
बढ़ते जाने की उनमें होड़ लगी है,
मंत्रों में जैसे अद्भुत शक्ति जगी है।
हर लहर, लहर को आगे ठेल रही है,
हर लहर, लहर की गति को झेल रही है।
बढ़ना, बढ़ते जाना सक्रिय जीवन है,
तट से बँध कर रह जाना घुटन-सड़न है।
जो कूद पड़ा लहरों में, पार हुआ है,
जो जूझ पड़ा, सपना साकार हुआ है।
जो लीक पुरातनता की छोड़ न पाया,
जिसका बल युग-धारा को मोड़ न पाया।
वह मानव क्या, जो बन्धन तोड़ न पाया,
जो अन्यायों के घट को फोड़ न पाया।
ये लहरें हैं, आता है इन्हें लहरना
बड़ने की धुन में भाता नहीं ठहरना।
तुन कौन? यहाँ जो गुमसुम बैठे तट पर,
निश्चल निष्क्रिय, जीवन के इस पनघट पर।
देखो जलधारा पर तिरती नौकाएँ,
जीवन-धारा पर तिरती अभिलाषाएँ।
उथलें में कुछ गहरे में नहा रहे हैं,
अपने कल्मष गंगा में बहा रहे हैं।
कछुए कुलबुल कर रहे कामनाओं से,
सुछ डुबे हैं अवदमित वासनाओं से।
कुछ दानी उनको दाने चुगा रहे हैं,
पाथेय पुण्य के अंकुर उगा रहे हैं।
घाटों पर जाग्रत जीवन मचल रहा है,
खामोशी को कोलाहल निगल रहा है।
नर-नारी बालक-वृद्ध युवा आए हैं,
वे अपनी वय की साध साथ लाए हैं।
बच्चे, बचपन के खेलों पर ललचाए,
बच्चों के बाबा, पुण्य कमाने आए।
क्या बात कहें उनकी जिनमें यौवन है,
छायावादी कविता-सी हर धड़कन है।
यौवन की साँसों में हैं सुमन महकते,
यौवन सागर है, शांत नहीं यह तट है।
यौवन, अभिलाषाओं का वंशीवट है,
यौवन रंगीन उमंगों का पनघट है।
यौवन आता तो जीवन ही जीवन है,
यौवन आता, बेबस हो जाता मन है।
यौवन के क्षण सपनों के हाथों बिकते,
यौवन के पाँव नहीं धरती पर टिकते।
तुम कौन, घाट से टिके हुए बैठे हो?
तुन किसके हाथों बिके हुए बैठे हो?
बिक चुका यहाँ नृप हरिश्चन्द्र-सा दानी,
रोहित-सा बेटा, तारा जैसी रानी।
तो सुनो, छलकते जीवन की मैं गगरी,
देखो, मैं बाबा विश्वनाथ की नगरी।
जो बड़भागी, वे लोग यहाँ रहते हैं,
परिचय दूँ? वाराणसी मुझे कहते हैं।
शिव के त्रिशूल पर बैठी मैं इठलाती,
मैं दैहिक, दैविक, भौतिक शूल मिटाती।
जीने वालों को दिव्य ज्ञान देती हूँ,
मरने वालों को मोक्ष-दान देती हूँ।
शंकर बाबा की कैसे कहूँ `कहानी',
उन जैसा कोई मिला न अवढर दानी।
तप की विभूति तन पर शोभित होती है,
यश-गंगा उनके जटा-जूट धोती है।
है तेज-पुंज-सा उन्नत भाल दमकता,
कहने वाले कहते हैं, चन्द्र चमकता।
वे युग का विष पीने वाले विषपायी,
अपने भक्तों को वे सदैव वरदायी।
विषयों के विषधर उन्हें नहीं डसते हैं,
जन-मंगल ही उनके मन में बसते हैं।
वे सुनते अनहद-वाद विश्व-भय-हारी,
इसलिए लोग कहते, नादिया सवारी।
वे वर्तमान के मान, भूत हैं वंश में,
अभिप्रेत भविष्यत हैं मन के तर्कंश में।
जग के विचित्र गुण-गण उनके अनुचर हैं,
वे पर्वतीय-सुषमा-पति शिव-शंकर हैं।
क्या मृग-मरीचिका कोई उसे लुभाए,
जो मृग-छाला को आसन स्वयं बनाए।
वे धूरजटी, धुन की धूनी रमते हैं,
व्यवधान विफल होते जब वे जमते हैं।
मैंने तुमको शिव का माहात्म्य बताया,
मैंने गंगा की लहरों का गुण गाया।
तुम उठो पथिक, झटको यह आत्म-उदासी,
जग से जूझो, तुम बनो नहीं संन्यासी।
गंगा की लहारों से शीतलता पाओ,
मन्दिर में बाबा के दर्शन कर आओ।
तुमको रहस्य कुछ और बताऊँगी मैं,
अपने बेटे का गौरव गाऊँगी मैं।
-०००-
(५)
वाराणसी
लहरें
उच्छल गंगा का हिल्लोलित अन्तर है,
भावना प्रगति की मानों हुई प्रखर हैं।
लहरें हैं, जो स्र्कने का नाम न लेती,
तटकी बांहों में वे विश्राम न लेती।
बढ़ते जाने की उनमें होड़ लगी है,
मंत्रों में जैसे अद्भुत शक्ति जगी है।
हर लहर, लहर को आगे ठेल रही है,
हर लहर, लहर की गति को झेल रही है।
बढ़ना, बढ़ते जाना सक्रिय जीवन है,
तट से बँध कर रह जाना घुटन-सड़न है।
जो कूद पड़ा लहरों में, पार हुआ हैं,
जो जूझ पड़ा, सपना साकार हुआ है।
जो लीक पुरातनता की छोड़ न पाया,
जिसका बल युग-धारा को मोड़ न पाया।
वह मानव क्या, जो बन्धन तोड़ न पाया,
जो अन्यायों के घट को फोड़ न पाया।
ये लहरें हैं, आता है इन्हें लहरना
बढ़ने की धुन में भाता नहीं ठहरना।
तुन कौन? यहाँ जो गुमसुम बैठे तट पर,
निश्चल निष्क्रिय, जीवन के इस पनघट पर।
देखो जलधारा पर तिरती नौकाएँ,
जीवन-धारा पर तिरती अभिलाषाएँ।
उथलें में कुछ गहरे में नहा रहे हैं,
अपने कल्मष गंगा में बहा रहे हैं।
कछुए कुलबुल कर रहे कामनाओं से,
सुछ डुबे हैं अवदमित वासनाओं से।
कुछ दानी उनको दाने चुगा रहे हैं,
पाथेय पुण्य के अंकुर उगा रहे हैं।
घाटों पर जाग्रत जीवन मचल रहा है,
खामोशी को कोलाहल निगल रहा है।
नर-नारी बालक-वृद्ध युवा आए हैं,
वे अपनी वय की साध साथ लाए हैं।
बच्चें, बचपन के खेलों पर ललचयें,
बच्चों के बाबा, पुण्य कमाने आए।
क्या बात कहें उनकी जिनमें यौवन है,
छायावादी कविता-सी हर धड़कन है।
यौवन की साँसों में हैं सुमन महकते,
यौवन सागर है, शांत नहीं यह तट है।
यौवन, अभिलाषाओं का वंशीवट है,
यौवन रंगीन उमंगों का पनघट है।
यौवन आता तो जीवन ही जीवन है,
यौवन आता, बेबस हो जाता मन है।
यौवन के क्षण सपनों के हाथों बिकते,
यौवन के पाँव नहीं धरती पर टिकते।
तुम कौन, घाट से टिके हुए बैठे हो?
तुन किसके हाथों बिके हुए बैठे हो?
बिक चुका यहाँ नृप हरिशचन्द्र-सा दानी,
रोहित-सा बेटा, तारा जैसी रानी।
तो सुनो, छलकते जीवन की मैं गगरी,
देखो, मैं बाबा विश्वनाथ की नगरी।
जो बड़भागी, वे लोग यहाँ रहते हैं,
परिचय दूँ? वाराणसी मुझे कहते हैं।
शिव के त्रिशूल पर बैठी मैं इठलाती,
मैं दैहिक, दैविक, भौतिक शूल मिटाती।
जीने वालों को दिव्य ज्ञान देती हूँ,
मरने वालों को मोक्ष-दान देती हूँ।
शंकर बाबा की कैसे कहूँ `कहानी',
उन जैसा कोई मिला न अवढर दानी।
तप की विभूति तन पर शोभित होती है,
यश-गंगा उनके जटा-जूट धोती है।
है तेज-पुंज-सा उन्नत भाल दमकता,
कहने वाले कहते हैं, चन्द्र चमकता।
वे युग का विष पीने वाले विषपायी,
अपने भक्तों को वे सदैव वरदायी।
विषयों के विषधर उन्हें नहीं डसते हैं,
जन-मंगल ही उनके मन में बसते हैं।
वे सुनते अनहद-वाद विश्व-भय-हारी,
इसलिए लोग कहते, नादिया सवारी।
वे वर्तमान के मान, भूत हैं वश में,
अभिप्रेत भविष्यत हैं मन के तर्कंश में।
जग के विचित्र गुण-गण उनके अनुचर हैं,
वे पर्वतीय-सुषमा-पति शिव-शंकर हैं।
क्या मृग-मरीचिका कोई उसे लुभाए,
जो मृग-छाला को आसन स्वयं बनाए।
वे धूरजटी, धुन की धूनी रमते हैं,
व्यवधान विफल होते जब वे जमते हैं।
मैंने तुमको शिव का माहात्म्य बताया,
मैंने गंगा की लहरों का गुण गाया।
तुम उठो पथिक, झटको यह आत्म-उदासी,
जग से जूझो, तुम बनो नहीं सन्यासी।
गंगा की लहारों से शीतलता पाओ,
मन्दिर में बाबा के दर्शन कर आओ।
तुमको रहस्य कुछ और बताऊँगी मैं,
अपने बेटे का गौरव गाऊँगी मैं।
-०००-

(६)
खूनी मेंहदी
हाँ सुनो पथिक! जो बात कह रही हूँ मैं,
कब से उसका संताप सह रही हूँ मैं।
कह देने से मन हल्का हो जाता है,
दुख का उफान फिर तल में सो जाता है।
तुम सभी जहाँ बैठे, यह वही ठिकाना,
बैठा करता था बूढ़ा एक पुराना।
सब लोग उसे पागल! पागल! कहते थे,
उसकी उत्पीड़न से आहें भरता रहता।
वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह कभी-कभी खुद पर ही झल्लाता था।
वह अपने से ही बातें करता रहता,
कुछ उत्पीड़न से आहें भरता रहता।
वह कभी हवा में सीधा हाथ झटकता,
वह बार-बार पत्थर पर उसे पटकता
इस तरह हाथ लोहू-लुहान हो जाता,
पागल का कुछ ठण्डा उफान हो जाता।
बढ़ गया एक दिन आत्म-दाह जब भारी,
गंगा-मैया में ही छलाँग दे मारी।
जर्ज रित देह को लहरों ने झकझोरा,
यों टूट गया साँसों का कच्चा डोरा।
चल निकलीं, जितने मुँह उतनी ही बातें,
जन-पथ पर चलती बातों की बारातें।
चर्चाओं के मंथन से अभिमत निकला,
वह पाप धो रहा था अपना कुछ पिछला।
यह पागल था पहले जल्लाद भयानक,
उसका सारा जीवन ही क्रूर कथानक।
जाने कितनों के जीवन-दीप बुझाए,
उसने जाने कितने माँ-दीप स्र्लाए।
उसके अन्तर में नहीं दया-ममता थी,
दानवी वृत्ति की अपरिसीम क्षमता थी।
जल्लाद दैत्याकार महाबल-शाली,
उसकी आँखों में चिता-ज्वाला की लाली।
उसकी गति में हत्याओं की हलचल थी,
मति में जघन्य पापों की चहल-पहल थी।
वह क्रुद्ध बाज-सा जिसके ऊपर टूटा,
तन के पिंजडे से प्राण-पखेरू छूटा।

वह दैत्य एक दिन जब अपनी पर आया,
निर्बोध एक बालक पर हाथ उठाया।
इस बाल-सिंह का नाम चन्द्रशेखर था,
जलती भट्टी का ताप लिए अन्तर था।
वह भी जन -आंदोलन में कूद पड़ा था,
शासन ने उसको इसीलिए जकड़ा था।
देखे केवल चौदह वसन्त जीवन के,
संकल्प उग्र हो गए उदित यौवन के।
वह तड़प, `बाँधो न मुझे हत्यारो'!
पन्द्रह क्या, पन्द्रह सौ कोड़े तुम मारो।
मैं जहाँ खड़ा हूँ, तिलभर नहीं हिलूँगा,
मैं हर कोडे पर हँसता हुआ मिलूँगा।
जो दण्ड मिले वरदान, समझ ले लूँगा,
आघात भयंकर फूल समझ झेलूँगा।
जो मार पडेग़ी उसका स्वाद चखूँगा,
जो दूध पिया है उसकी लाज रखूँगा।
यह कह वह बालक खड़ा हो गया तनकर,
जल्लाद झपट बैठा सक्रोश उफन कर।
पूरी ताकत से एक हाथ दे मारा,
बालक बोला गाँधी की जय का नारा।
फिर और जोर से उसने हाथ जमाया,
भारत-माता की जय का नारा आया।
क्रोधांध दैत्य ने हाथ तीसरा छोड़ा,
कुछ खाल खींच कर ले आया वह कोड़ा।
चौथा कोड़ा हो गया खून से तर था,
विचलित किंचत भी नहीं चन्द्रशेखर था।
निर्वसन देह पर पडे तडातड़ कोड़े,
भरपूर हाथ उस नर-दानव ने छोडे।
कोमल काया कोड़ो से जूझ रही थी,
उसको जन-नायक की जय सूझ रही थी।
जल्लाद, हाथ कस-कस कर गया जमाता,
हर हाथ, खाल उसकी उधेड़ ले आता।
बालक ने चाहा नहीं वार से बचना,
खूनी मेंहदी की हुई देह पर रचना।
उसने अपना कोई व्रण नहीं टटोला,
वह गाँधी की-भारत माँ की जय बोला।
उस नरम उमर ने मार भंयकर खाई,
अधखिले फूल ने वज्र-शक्ति दिखालाई।
कुसुमादपि उसकी देह बनी फौलादी,
वह झेल गया आघात क्रुर जल्लादी।
लोगों के दिल पर अब उसका आसन था,
यह देख-देख ईर्ष्यालु हुआ शासन था।
हर अन्तर ही अब उसका अपना घर था,
अनुदिन उसका चिन्तन हो रहा प्रखर था।
जन-भावों पर छा गया चन्द्रशेखर था,
नक्षत्र नया आगया चन्द्रशेखर था।
कायरता का खा गया चन्द्रशेखर था
आजाद नाम पा गया चन्द्रशेखर था।
वह धरती का अनुराग लिए फिरता था,
तन पर कोड़ों के दाग लिए फिरता था।
वह स्वर में विप्लव-राग लिए फिरता था,
वह उर में जलती आग लिए फिरता था।
सहला न सका उसके घावों को गाँधी,
आ गई क्रांतिकारी भावों की आँधी।
लपटों का सरगम छिड़ा उग्र जीवन में,
वह धूमकेतु-सा निकला क्रांति-गगन में।
-०००-

(७)
काकोरी
लघुता की गुरुता
मैं शांत, मौन, गंभीर भावनाओं का स्वर,
लघु ग्राम एक, मैं दूर नगर कोलाहल से।
मैं हूँ सागर में सरिता का अस्तित्व-बोध,
मैं छिटक गया घुँघुरू,जीवन की पायल से।
बालक की जिज्ञास-माला का एक प्रश्न,
जिसका उत्तर बन जाय बड़ों की हैरानी।
जिसका जैसा जी चाहे अर्थ लगा बैठे,
मैं सन्तों की-अवधूतों की अटपट बानी।
जगमग-जगमग विस्तीर्ण सौर-मण्डल का मैं,
टिमटिम करता छोटा-सा एक सितारा हूँ।
मैं भूलभुलैयों का व्यापक निर्देश नहीं,
मैं अक्लमंद को हल्का एक इशारा हूँ।
मैं उपदेशों की परिधिहीन विस्तार नहीं,
लघु सूत्र एक, मैं चिन्तनशील मनस्वी हूँ।
मैं विधि-निषेध संयुक्त विशद साधना नहीं,
पल एक सुफल का, पहुँचे हुए तपस्वी का।
मुझ में न राज-पथ इच्छाओं से विशद विपुल,
मेरी निधियाँ हैं, तृप्ति-भावना-सी गलियाँ।
विकृतियों के स्मारक से मुझ में सौध नहीं,
मेरे कच्चे घर, गौरव की विरुदावलियाँ।
मेरी संस्कृति को, चपल सभ्यता की दासी,
उँगलियाँ थाम कर चलना नहीं सिखाती है।
मेरे विकास में पौरुष का विश्वास सजग,
मेरी लघुता, गुरुता को मार्ग दिखाती है।
संसद का करते दृश्य उपस्थित हैं अलाव,
मन्त्रालय बन जातीं मेरी चौपालें हैं।
कर्मठ किसान उत्पादन का लड़ते चुनाव,
मत-पत्र बना करतीं गेहूँ की बालें हैं।
मेरी सम्पति, बन्दिनी नहीं कोषालय की,
बिखरी रहती है वह खेतों-खलिहानों में।
मेरी गरिमा न अनावृत-सी है नागरिका,
शोभित होती है वह धानी परिधानों से।
बचपन चौकड़ियाँ भरता हुआ चला जाता,
यौवन का चढ़ता रंग चटखती तीसी है।
दूल्हा-सा सजता चना गुलाबी सेहरे में,
उन पर सवार नादान उमर पच्चीसी है।
सर-सर करती है सरसों पवन-झकोरों से,
मुख पर मल दी, मानों विवाह की हल्दी है।
छेड़ती उसे अरहर, 'गोरी कुछ ठहर और`
प्रियतम घर जाने की ऐसी क्या जल्दी है।`
रानी-सी पुजती ज्वार, छत्र धारण करके,
चम-चम मोती-से दाने सब मन हरते।
मक्का के भुट्टे चँवर लिए तैयार खड़े,
रजगिरा बाजरा झुक-झुक अभिवादन करते।
मैं कैसे पूरा विवरण दूँ निज वैभव का,
सम्पन्न खेत, याश-गाथा-से फैले रहते।
उजले रहते लोगों के मन दर्पण जैसे,
श्रम-साधक केवल हाथ-पैर मैले रहते।
नारियाँ नहीं, देवियाँ कहें तो अच्छा है,
सच्चे अर्थों में वे सब अन्न-पूर्णाएँ।
शुभ ग्रह जैसी, वे गृह की जन्म-पत्रिका में,
वे पुरुष हाथ में प्रबल भाग्य की रेखाएँ।
उँगली की कूँची से घर की दीवारों पर,
जब करतीं वे अनगढ़ चित्रों की रचनाएँ।
तो सच मानो कृतकृत्य कला हो जाती है,
मिल पाती हैं उपयुक्त न उनको उपमाएँ।
तो मैं ऐसी जीवन्त चेतना का प्रहरी,
लघु ग्राम एक, पर बहुत बड़े दिल वाला हूँ।
मैं संघर्षो के पीठ तरे हरिमाया हूँ,
मैं गया नहीं नाजों-नखरों में पाला हूँ।
लखनवी शान, वैसे पड़ोस में ही मेरे,
पर मैंने उससे की सदैव सीना-जोरी।
क्या नाम बताना ही होगा मुझको हुजूर!
तो सुनिए, मुझको कहते हैं सब काकोरी।
जी हाँ काकोरी, मैं काकोरी ग्राम एक,
जो क्रान्ति-काल में लपटों जैसा चमक गया।
मैंने देखा धरती के दीवानों का दल,
साम्राज्यवाद की छाती पर धमक गया।
मैं धीरज से खिलवाड़ करूँगा नहीं अधिक,
क्या हुआ, किस तरह हुआ, तुम्हें बतलाता हूँ।
विश्वास सुनी बातों पर कम ही करता हूँ,
आँखों देखी ही तुमको आज सुनाता हूँ।
-०००-
( ८)
रेल की नकेल
दिनभर ने ली दिन की अपनी पूँजी समेट,
वह था बिलकुल घर जाने की तैयारी में।
रह गई शेष थी तनिक क्षीण आभा उसकी,
जैसे कुछ निधि फँस कर रह जाए उधारी में।
वह रही-सही पूँजी डूबती दिखाई दी,
था डूब रहा सूरज का लाल-लाल गोला।
देवता प्रचारित करने शिला-खण्ड गोला।
हो लेप दिया जैसे शुभ सिन्दूरी चोला।
धँस रहा क्षितिज में लाल-लाल सूरज ऐसे,
लग जाए आग, जल-पोत समन्दर में डूबे।
रोहित आभा पर तिमिर हो रहा था हावी,
नैराश्य-ग्रसित हो रही दिवाकर की ऐसे।
पंछी, दल के दल बढ़े जा रहे थे ऐसे
जाते हों जैसे श्रमिक रात की पाली के।
थी क्रांति क्षीण हो रही दिवाकर की ऐसे
शोषित हों दिन जैसे यौवन की लाली के।
वन से चर कर घर के थीं गायें लौट रहीं,
गोधूलि अधर में उठ कर ऐसी छाई थी
छू रही किनारे दो, जैसे कोई धारा,
या धरती-अम्बर की हो रही सगाई थी।
मेरी साँसों भी श्लथ थीं, दिन भर के श्रम से,
मैंने सोचा, अब मैं संध्या-वंदन कर लूँ।
प्रेरणा मिली जो जीवन के संघर्षों से,
उनका कृतज्ञता से मैं अभिनन्दन कर लूँ।
स्वर तभी सुनाई दिया मुझे कुछ छक छक छक,
दिख पड़ी धुएँ की काली रेखा भी ऐसे।
व्यक्तित्व कुटिल जब दिखता है, तब दिखता है,
अपकीर्ति चला करती आगे आगे जैसे।
आ रही रेल गाड़ी थी कोई इठलाती,
फक-फक छक-छक वह बोल बोलती थी ऐसे
कहती हो जैसे, सुनो! सुनो! लखनऊ वालो!
क्या पता तुम्हें `जबलपूर के छ:-छ: पैसे।'
लखनऊ वाले उत्तर दें, इसके पहले ही,
लग गई चाल को नजर किसी दीवाने की।
हक्की-बक्की भौंचक्की-सी वह ठिठक गइंर्,
रफ्तार समझ में आई नहीं जमाने की।
समझाने उसको क्रांतिवीर कुछ कूद पड़े,
कानों में सिंहों की भीषण गर्जना पड़ी।
हम नहीं छुएँगे जान-माल जनता का, पर,
तुम हिलो नहीं, जब तक यह गाड़ी रह खड़ी।
पिल तड़े छैनियाँ-घन ले वीर तिजोरी पर,
तो मार-मार हजमकर बैठी थी वह भारत का,
जो माल हजम कर बैठी थी वह भारत का,
सब छीन लिया, उस पर न एक कौड़ी छोड़ी।
जो कुछ भी पाया, सब समेट वे खिसक गए,
जड़ दिया तमाचा शासन के मुँह पर भारी।
तिलमिला उठे अंग्रेज बहादुर चाँटे से,
खिलखिला उठे भारत के वीर क्रांतिकारी।
मैंने देखा, वे क्रांति-वीर सब ही के सब,
यौवन-मद में मदमाते सिंह हठीले थे।
थे पुष्ट वक्ष, गर्वोन्नत मस्तक, सबलबाहु,
तेजीद्दीप्त, बलशाली और गठीले थे।
नेता तो नेता था ही, उसका क्या कहना,
अंगारों स यौवन वाला वह बिस्मिल था।
आजाद चन्द्रशेखर भी था उन्नीस नहीं,
वह आत्म-बली, संकल्पी, निडर, शेरदिल था।
वैसे जब आती उमर, सभी होते जवान,
कुछ और बात थी उस पर चढ़ी जवानी में।
संकल्प धधकते थे उसके उर में ऐसी
लग जाए जैसे आग सिन्धु के पानी में।
-०००-

–श्री कृष्ण सरल

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