05 फ़रवरी, 2008

शहीद भगत सिंह महाकाव्य -सर्ग (1)


सर्ग एक
सिंह-जननी





शान्ति के वरदान-सी, तुम धवल-वसना कौन?
संकुचित है मौन लख कर तुम्हारा मौन।
दूध की मुस्कान से संपृक्त ये सित केश,
सौम्यता पर शुभ्रता ज्यों विमल परिवेश।

साधुता की, सरल जीवन के लिए यह देन,
उल्लसित मंथित अमल ज्यों ज्योत्स्ना का फेन।
भव्यता धारण किये शुचि धवल दिव्य दुकूल,
या खिले जीवन-लता पर ये सुयश के फूल।

कलुषता निर्वासिनी, यह धवलता की जीत,
संवरित है शीष पर, यह स्नेह का नवनीत।
प्रस्फुटित है भाल पर मानो हृदय का ओप,
साधना पर, सिद्धि का मानो सुखद आरोप।

और मुख पर स्निग्ध अंतर की झलकती क्रांति
लग रही, ज्यों साँस सुख की ले रही हो शांति।
भावनाओं की, मुखाकृति सहज पुण्य-प्रसूति,
झुर्रियों में युग-युगों की सन्निहित अनुभूति।

देह पर चित्रित त्वचा की संकुचित हर रेख,
लग रही वय-पत्र पर ज्यों एक सुन्दर लेख।
या कि जीवन-भूमि पर-डण्डियों का जाल,
चल रहा वय का पथिक संध्या समय की चाल।

कौन हो इस भाँति अपने आप मे तुम लीन?
कौन हो तुम पुण्य-प्रतिमा-सी यहाँ आसीन?
कौन स्नेहाशीष की तुम मूर्ति अमित उदार?
कौन श्रद्धा-भावना ही तुम स्वयं साकार?

कौन तुम, मन में तुम्हारे कौन-सी है व्याधि?
अर्चना हित खींच लाई तुम्हें दिव्य समाधि।
है कृती वह कौन, किसका समाधिस्य कृतित्व?
वन्दना से स्वयं वन्दित, कौन वन व्यक्तित्व?

कौन माँ! ममता-मयी तुम? क्यों नयन में नीर?
उच्छ्वसित उर में तुम्हारे, कौन-सी है पीर?
पूछता हूँ मैं अकिंचन एक कवि अनजान,
भाव-मग्ना कर रहीं तुम किस व्रती का ध्यान?

`बस करो अब वत्स! अपना सुन लिया स्तुति गान,
अब नहीं अपराध आगे कर सकेंगे कान।
बात हौले से करो, स्वर को सम्हाल-सम्हाल,
सो रहा इस भूमि में बरजोर मेरा लाल।

सो रहा है यहाँ, मेरी कोख का भूचाल,
सो रहा इस भूमि से निज शत्रुओं का काल।
सो रहा है मातृ-मन का यहाँ शाश्वत गर्व,
सो रहा सुख से, मना कर वह यहाँ बलि-पर्व।

सो रहा वंशानुक्रम से पुष्ट रक्तोन्माद,
जो कि वातावरण में ढल, बन गया फौलाद।
सो रहा है यहाँ, मेरी आग का प्रिय फूल,
स्वर्ग का सुख दे रही, उसको धरा की धूल।

धूम धरती पर मचा, विद्रोह का वरदान,
यहाँ मेरे दूध का सोया अजस्र उफान।
सो गया उल्लास मेरा, सो गया आमोद,
एक माँ की गोद तज कर, दूसरी की गोद।

ओज अन्तस् का, यहाँ पर कर रहा विश्राम,
वत्स! क्या तुमको बतादूँ उस हठी का नाम?
लाल वह मेरा भगत, था सिंह ही साकार,
जन्म से ही था कहाया गया वह सरदार।

गर्जना उसकी विकट सुन, काँपते थे लाट,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
सुन लिया, क्या और परिचय रह गया कुछ शेष?
यहाँ मेरी भावना का सो रहा आवेश?''

``तनिक ठहरो माँ! हुई वरदान मेरी भूल,
पूत चरणों की तनिक ले लूँ सुशीतल धूल।
इन पगों पर ही रहे युग-युग नमित यह माथ,
फेर दो इस शीष पर माँ! स्नेह-प्रश्लथ हाथ।

सिंह जननी धन्य हो तुम, कोटि बार प्रणम्य,
धन्य निश्चय ही तुम्हारा लाल वीर अदम्य।
किन्तु माँ! शंका तनिक मेरी अभी है शेष,
बात हौले से करूँ, यह क्यों मिला आदेश?''

``अरे! इतनी-सी न समझे तुम सरल सी बात,
मानवी मन के कहाते पारखी निष्णात।
सत्य है, शंका तुम्हारी है नहीं निर्मूल,
अर्थ मेरे भाव का तुमने लिया प्रतिकूल।

वार्ता के तीव्र स्वर से जागने का खेद,
शान्ति के संकेत का मेरा नहीं यह भेद।
वार्ता का विषय कर सकता है उसे त्रस्त,
निज प्रशंसा-श्रवण का, वह था नहीं अभयस्त।

वत्स! दो बातें न की उसने कभी स्वीकारा,
स्वयं का गुण-गान, या फिर शत्रु की ललकार।
देख पाता था न मेरा लाल, आँखें लाल,
निज प्रशंसा भी उसे करती रही बे-हाल।

किन्तु तुमने पूर्ण करने स्वल्प शिष्टाचार,
था `कृती' या `व्रती' शब्दों का किया व्यवहार।
संकुचन के क्षोभ को, उसके लिए यह बात,
है बहुत छोटी, कदाचित् हो बड़ा व्याघात।

आज तक है याद मुझको एक दिन की शाम,
एक दिन आये कहीं से वे, न लूँगी नाम।
साथ उनके आ गये थे मित्र उनके एक,
वार्ता से ही प्रकट अति बुद्धि और विवेक।

प्रस्फुटित वातावरण में हास्य और विनोद,
पा रहे थे हम सभी, वह सरल निश्छल मोद।
किया उपक्रम, मैं करूँ जलपान का उपचार,
सिंह-शावक आ गया मेरे हृदय का हार।

प्रणत होकर अतिथि का, उसने किया सम्मान,
अतिथि की वाणी बनी वरदान का तूफान।
``तुम प्रणत मुझको, प्रणत हो तुम्हें सब संसार,
जियो युग-युग, तुम करो निज सुयश का विस्तार।''

देख मेरी और बोले अतिथिवर सप्रयास,
कह रहा जो बात, भाभी! तुम करो विश्वास।
है अडिग विश्वास मन में, यह तुम्हारा लाल,
विश्व में ऊँचा करेगा मातृ-भू का भाल।

आत्मा कहती, बनेगा वीर यह सम्राट,
इस धरा की दासता की बेड़ियों को काट।
पूत के लक्षण प्रकट हैं पालने में आज,
सिंहनी का सुअन होगा विश्व का सरताज।

अल्प वय, इतनी विनय, इतना पराक्रम, ओज,
सिंह-शावक सी ठवनि, ये नयन रक्तंभोज।
देह सुगठित, विक्रमी चितवन समुन्नत भाल,
शत्रुओं का शत्रु होगा यह कठोर कराल।''

अतिथिवर की बात में व्यति-क्रम हुआ तत्काल,
विनत होकर बाल ने स्वर में मधुरता ढाल।
कहा-`चाचाजी! अनय यदि मैं करूँ, हो क्षम्य,
बात मुझको लग रही अनपेक्ष और अगम्य।

कह मुझे सम्राट, देते स्वप्न का क्यों जाल?
स्वप्न में राजा बना सकते सदा कंगाल।
मातृ-भू का ही अकिंचन बन सका यदि भृत्य,
सफल समझूँगा सभी मैं साधना के कृत्य।

और यदि गुण-गान आवश्यक, निवेदन एक,
देश के सम्मान का, स्वर में रहें उद्रेक।
सुन प्रशंसा, आदमी कर्तव्य जाता भूल,
अनधिकृत श्लाघा, पतन के लिये पोषक मूल।

जो न करता निज प्रशंसा सुन कभी प्रतिवाद,
अंकुरित उर में हुआ करता प्रमत्त प्रमाद।
विकस यह अंकुर बने जब एक वृक्ष विशाल,
पतन के परिणाम का फिर कुछ न पूछो हाल।

फिर निवेदन विज्ञवर! हो क्षम्य यह व्याघात,
क्षम्य मेरी, आज छोटे मुँह बड़ी यह बात।
अनवरत अपनी प्रशंसा सुन हुआ कुछ क्षोभ,
प्रतिक्रमण का, संवरण मैं कर न पाया लोभ।'

``वार्ता का वत्स! अब मैं क्या करूँ विस्तार,
वह प्रशंसा का सदा करता रहा प्रतिकार।
शान्ति के संकेत का मेरा यही था अर्थ,
और भी शंका रही कुछ शेष सुकवि समर्थ?''

``धन्य हो माँ! और क्या शंका रहेगी शेष?
धन्य ऐसे पुत्र पाकर माँ! हमारा देश।
धन्य हूँ मैं, आज सुन कर ये प्रबुद्ध विचार,
है नहीं सामर्थ्य, जो अभिव्यक्त हो आभार।

जानकर यह बात, जिज्ञासा बढ़ी कुछ और,
किन विचारों में पला था देश का सिर-मौर?
किस तरह विकसित हुआ मन में विकट बलिदान?
माँ! करो उपकृत, सुना कुछ और भी प्रतिमान।''

वत्स तुम कितने चतुर, कितने उदार विचार,
स्वयं उपकृत का कथन कर, कर रहे उपकार।
मातृ-मन का जानते हो तुम मनोविज्ञान,
बात कर यह, कह रहे प्रमुदित मुझे मतिमान।

लाल मेरा, बालपन में था बहुत शैतान,
हम नहीं केवल,पड़ौसी भी रहे हैरान।
जब झगड़ता, साथियों के केश लेता नोंच,
चिह्न बनते गाल पर, लेता प्रकुप्त खरोंच।

फूल चुनना आग के, थे प्रिय उसे ये खेल,
घोर विपदाएँ विहँस कर लाल लेता झेल।
तोड़ता यह, फोड़ता वह, जोड़ता कुछ और,
थे कुएँ या बावड़ी सब खेलने के ठौर।

क्षमा करता, यदि कभी छोटे करें अपराध,
पर, सबल की धृष्टता का दण्ड था निर्बाध।
चौगुना भी क्यों न हो, वह माँगता था द्वन्द्व,
नम्र था व्यवहार में, संघर्ष में स्वच्छन्द।

मित्र की रक्षार्थ, वह बनता स्वयं था ढाल,
जो उसे नीचा दिखाए, किस सखी का लाल।
बाहुओं का जोर था उसके लिए उन्माद,
मोम-सा तन, किन्तु बनता द्वन्द्व में फौलाद।

स्नेह में भी, बैर में भीं, वह न था परिमेय,
दण्ड था उद्दंडता का, साधुता का श्रेय।
नीति दुश्मन की सही पर स्वजन की न अनीति,
व्यक्ति पर उसकी नहीं, व्यक्तित्व पर थी प्रीति।

और हाँ, पूछी अभी तुमने हृदय की पीर,
पूछते थे तुम, लिये मैं क्यों नयन में नीर।
तो सुनो, है सहज ही सुत, व्यथा का सन्ताप,
सुन न पाती आज मैं निज तात का संलाप।

वह न मेरे पास, मेरी मोद का श्रृंगार,
आज सूना है हृदय, खोकर हृदय का हार।
हैं तड़पते कान सुनने लाल के प्रिय बोल,
हैं कहाँ वे चूम लूँ जो मधुर स्निध कपोल।

अंक में भर लूँ जिसे, वह कहाँ कोमल गात,
वह न मेरे पास, उसकी रह गई है बात।
मातृ-मन्दिर पर हुआ अर्र्पित सुकोमल फूल,
शत्रुओं से जूझ, फाँसी पर गया वह झूल।

सांत्वना देता मुझे है लाल का सन्देश,
``शीघ्र ही स्वाधीन होगा माँ! हमारा देश।
तुम न समझो माँ! तुम्हारी गोद से मैं दूर,
तुम न समझो, आज तुम पर है विधाता क्रूर।

माँ! हमारे देश के जितने हठीले बाल,
वे तुम्हारे ही भगत हैं, वे तुम्हारे लाल।
देख छवि उनकी, किया करना मुझे तुम याद,
विसर्जन मेरा, न बन जाये तुम्हें अवसाद।

स्वर्गं भी है जिस धरा के सामने अति रंक,
जो सभी की माँ हमारी, ले रही वह अंक।
व्यर्थ जायेगा नहीं माँ! एक यह बलिदान,
है निकट स्वाधीनता का सुखद पुण्य-विहान।

मुक्ति की मंगल प्रभाती सुनें जिस दिन कान,
ले नया उत्साह, खग-कुल कर उठें कल गान।
जिस सुबह हो देश का वातावरण स्वच्छन्द,
गा उठें कवि-कण्ठ जिस दिन गीत नव, नव-छंद।

मुक्ति के दिन बाल-रवि की रश्मियों का जाल,
इस धरा पर कुंकुमी आभा अलभ्य उछाल।
पुण्य-भारतवर्ष का जिस दिन करे अभिषेक,
देश के नर-नाहरों की पूर्ण हो जब टेक।

जब उठे दीवानगी की लहर चारों ओर,
गगन-भेदी घोष चूमे जब गगन के छोर।
जब दिशाओं में तरंगित हो हृदय का हर्ष,
विश्व अभिनन्दन करे-जय देश भारतवर्ष!

तब मिलूंगा तुम्हें फूलों की सुरभि के संग,
तुम्हें किरणों में मिलूंगा मैं लिये नव-रंग।
तब पवन अठखेलियाँ कर, करे तुमको तंग,
तब समझना, ये भगत के ही निराले ढंग।

तब लगेगा माँ, दुपट्टा मैं रहा हूँ खींच,
तब लगेगा मैं तुम्हारे दृग रहा हूँ मींच।
भास परिचित स्पर्श का जब हो पुलक के साथ,
हाथ मेरा खींचने, अपना बढ़ा कर हाथ।

जब कहोगी-कौन हे रे ढीठ! तू है कौन?
तब तुम्हें उत्तर मिलेगा एक केवल मौन।
तुम चकित हो, चौंक देखोगी वहाँ सब ओर,
सुन सकोगी हर्ष-ध्वनियाँ और जय का शोर।

एक ही क्यों भगत, देखोगी अनेकों वीर,
नमित नयनों से तुम्हारे चू पडेग़ा नीर।
घुल सकेगा, धुल सकेगा रोष का उन्माद,
गर्व से प्रतिफल करोगी माँ मुझे तुम याद।

तो यही सन्देश सुत का, कर रहा परितोष,
है सराहा भाग्य मैंने, दे न विधि को दोष।
वत्स! अन्तर का बताया है तुम्हें सब हाल,
तुम बताओ, क्यों बने जिज्ञासु तुम इस काल?

``लग रहा माँ! मुझे जैसे आज जीवन धन्य,
आज मुझ-सा भाग्य-शाली कौन होगा अन्य?
कर न पाया तप कि पहले मिल गया वरदान,
पूर्ण होता दिख रहा अपना बड़ा अरमान।

भावनाओं ने हृदय से है किया अनुबन्ध,
क्रान्ति के इस देवता पर लिखूँ छन्द प्रबन्ध।
आ गया इस ओर लेने प्रेरणा मैं आज,
माँ! तुम्हारे लाल की जैसे सुनी अवाज।

लगा जैसे कह रहा हो सिंह आज दहाड़,
लेखनी से कवि निराशा का कुहासा फाड़।
तुम सुकवि हो, मिला वाणी का तुम्हें वरदान,
तुम जगा दो निज स्वरों से देश में बलिदान।

लेखनी की नोंक में भर दो हृदय की शक्ति,
और कह दो धर्म केवल है धरा की भक्ति।
देश की मिट्टी इधर, उस ओर सौ साम्राज्य,
ग्रहण मिट्टी को करो, साम्राज्य हों सौ त्याज्य।

शीष पर धर देश की मिट्टी, करो प्रण आज,
प्राण देकर भी रखेंगे, हम धरा की लाज।
सह न पायेंगे कभी हम, देश का अपमान,
देश का सम्मान है प्रत्येक का सम्मान।

जो उठाये इस हमारी मातृ-भू पर आँख,
रोष की ज्वाला भने, हर फूल की हर पाँख।
भूल कर भी जो छुए इस देश का सम्मान,
कड़कती बिजली बने हर कली की मुस्कान।

लक्ष्य इस आदर्श का, सब को बता दो आज,
सो रहे जो, कवि! जगा दो दे उन्हें आवाज।
आज कवि की लेखनी उगले कुटिल अंगार,
साधना का, रक्त की लाली करे श्रृंगार।

गर्जना का घोष हो, हर शब्द की झंकार,
रोष की हुँकार हो गाण्डीव की टंकार।
शान्ति का सरगम बने संघर्ष का उत्कर्ष,
आज भारतवर्ष का हर वीर हो दुर्द्धर्ष।

कवि! भरो पाषाण में भी आज पागल प्राण,
चाहता युग कवि-स्वरों का आज सत्य प्रमाण।
कर सके यह, लेखनी का तो सफल अस्तित्व,
सफल, वाणी का मिला जो आज तुमको स्वत्व।

``माँ! इसी सन्देश की उर ने सुनी आवाज,
खींच लाई है यही आवाज मुझको आज।
क्रांति के जो देवता, मेरे लिये आराध्य,
काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य।

और यह सौभाग्य मेरा, जो यहाँ तुम प्राप्त,
क्या न शुभ संकल्प का संकेत यह पर्याप्त?
तुम करो माँ! आज मुझ पर और भी उपकार,
सिंह-सुत की वार्ता कह, आज सह-विस्तार।''

``वत्स! तुमने विवश मुझको कर दिया है आज,
रह न पायेगा हृदय में आज कोई राज।
पर समय का भी हमें रखना पड़ेगा ध्यान,
क्यों न घर चल हम विचारों का करें प्रतिपादन?

दे सकूँगी क्या तुम्हें आतिथ्य का आह्लाद?
और रूखी रोटियों में क्या मिलेगा स्वाद?
किन्तु तुमको पास बैठा, स्नेह का ले रंग,
लाल के चित्रित करूँगी, मैं अनेक प्रसंग।''

``माँ! तुम्हारा मान्य है साभार यह प्रस्ताव,
रोटियाँ रूखी भले, रूखा न होगा भाव।
वस्तु में क्या, भावना में ही निहित आनन्द,
काव्य शोभित भाव से, हो भले कोई छन्द।

तो चलो माँ! आज मुझको दो दिशा का दान,
आज मेरी भावनाओं को करो गतिवान।
मुक्त स्नेहाशीष का खोलो अमित भण्डार,
विश्व-जीवन को बने आलोक, माँ का प्यार।''
-०००-

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