05 फ़रवरी, 2008

बुढ़िया-पुराण या परीक्षित मनोविज्ञान

बुढ़िया-पुराण या परीक्षित मनोविज्ञान

शैशव सुख की साँस ले रहा था ममता की मृदु छाया में,
रमे हुए थे सब ही के मन, उस जादूगर की माया में।
जाने कौन-कौन सी निधियाँ, मुट्ठी में बाँधे रहता था,
सुखद सिद्धियाँ कितनी-कितनी, मन ही मन साधे रहता था।


जो कुछ पड़े हाथ में, मुख के अर्पण होना सहज कृत्य था,
अभी जटिलता छू न गई थी, जो कुछ था सब सरल सत्य था।
बाल खिलौनों से क्या खेले, बना हुआ था स्वयं खिलौना,
किलकारी से सुधा बरसती, मुस्कानों से जादू-टोना।


यह भोलापन, हाव-भाव ये क्यों न किसी को प्यारे होते?
उस चन्दा पर क्यों न रात-दिन राई-लोन उतारे होते?
उसकी गतियों में विकास था, उस विकास में अच्छी गति थी,
पैतृक अनुहारों की, शिशु के अंग-अंग में प्रिय अनुरति थी।


अब बन्धन बन गया, खिलाड़ी उस ललना को अपना पलना,
पीठ उठा, करवट ले-लेकर, सहज कृत्य हो गया उछलना।
भू पर सरक-सरक चलने में, उसको अद्भूत सुख मिलता था,
चूम-चूम धरती-माता को, उसका मन-प्रसून खिलता था।


बालक क्या था, एक खिलौना सबने किया स्नेह-अर्पण था,
बुआ, चाचियों और ताइयों सब ही का वह आकर्षण था।
थी पड़ोस की महिलाओं की, बैठक वहाँ नित्य ही जमती,
एक बार चर्चा छिड़ जाये, नहीं थामने से वह थमती।


कोई कहती-``घर का चन्दा कितना प्यारा-प्यारा होगा,
सभी जगह उजियाला होगा गुड्डा राज-दुलारा होगा।''
कोई कहती-``बड़ा आदमी, बहुत बड़ा यह अफसर होगा,
खूब कमाई करके देगा, सदा सुखी इसका घर होगा।''


जब महिला-मंडल जुड़ जाता, बातों का बस क्रम ही क्रम था,
बाल-मनोविज्ञान उखड़ता, नहीं तर्क में कुछ विभ्रम था।
किसी एक को उस दिन सूझी-आओ! इसका भाग्य परख लें,
आगे यह क्या बनने वाला, सरल युक्ति से इसे निरख लें।


जटा लिये उपकरण अनेकों, खेल-खिलौने, पट्टी-पुस्तक,
कलम-दवात, और आभूषण सोने-चाँदी के आकर्षक।
वस्त्र रेशमी हुए उपस्थित सुन्दर चमकीले-भड़कीले,
स्वच्छ, धवल, कुछ रंग-बिरंगे, लाल, गुलाबी नीले-पीले।


कृषि-उद्योग आदि के भी कुछ यन्त्र हुये सज्जित धरती पर,
छोटे-मोटे अस्त्र-शस्त्र भी रखे वहाँ पर एकत्रित कर।
निश्चिय हुआ सरक कर बालक जो भी पहली वस्तु उठाये
तो उसके भविष्य का उसके क्रम ये अर्थ लगाया जाये।


कुछ दूरी पर बाल-सिंह को छोड़ दिया आगे बढ़ जाने,
रखे हुए उपकरण अनेकों, सम्मुख ही थे मन ललचाने।
किलक गया शिशु उन्हें देखकर, लगा सरकने वह मुँह बाए,
लगा तैरता-चलता-सा वह, हाथ बढ़ा कर शीष उठाए।


निकट वस्तुओं के जा पहुँचा, ऐसा उसने भरा सपाटा,
जहाँ रखे थे अलंकरण कुछ, मारा उन पर एक झपाटा।
बिखर गये सब इधर-उधर वे, मानो यह उनका वितरण था,
लगा कि जैसे यह समानता से ही बँटवारे का प्रण था।


फिर उस ओर लपक बैठा वह, एक तमंचा रखा जहाँ पर,
एक सपाटे में ही उसको जाकर हथिया लिया किलक कर।
अब बालक के लिये दौड़ थी, चाची ने झट लपक उठाया,
बार-बार माथे का चुम्बन लेकर उसको हृदय लगाया।


बोली-``राजा बेटा घर की आन-बान का रखवाला है,
इसीलिये तो वीर-पुत्र ने हाथ तमंचे पर डाला है।''
कोई बोल उठी,``यह काका आगे चल जण्डेल बनेगा,
बडे-बड़ों की नाकों को यह गुड्डा विकट नकेल बनेगा।''


जिसने जो बन पड़ा, सभी ने अपनी मति से अर्थ लगाया,
चूम, बलैयाँ ले-ले सबने संचित स्नेहाशीष लुटाया।
माँ प्रमुदित थी सुन-सुनकर यह, फूल, रही थी मन ही मन में,
मना रही थी सदा सुखी हो हे प्रभु! यह अपने जीवन में।


यह सबकी आँखों का तारा जग में अद्भूत नाम कमाये,
इसकी उज्ज्वल कीर्ति-सूरभि से, जग का घर-आँगन भर जाये।
भोजन के क्रम में गृहिणी ने गृह-पति को सब हाल सुनाया,
भाग्य परखने का उपक्रम सब उनको ब्यौरे-बार बताया।


कहा किस तरह किलक-किलक कर शिशु ने निज करतब दिखलाये
और किस तरह आभूषण सब उसने हाथों से बिखराए।
कहा-लपक कर कैसे उसने हाथ तमंचे पर था डाला,
कहा कि कैसे सबने उसको बतलाया घर का उजियाला।


फिर सगर्व बोली-``दिखता, यह तुम पर ही जाएगा आगे,
यह घर में क्या आया, लगता जैसे भाग्य हमारे जागे।
वक्ष तन गया गृह-पति का भी, मूँछों-मूँछों में मुस्काए,
बाल-सिंह को गोदी से ले, लगे अकड़ने रौब जमाए।


बोल उठे, ``मुझको भी दिखता,
उज्ज्वलतम भविष्य इसका है।
बोलो! अब तो मान गई तुम,
आखिर यह बेटा किसका है।''
-०००-

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