05 फ़रवरी, 2008

जीवन का स्वर्ण भोर

जीवन का स्वर्ण भोर


`जन्म' नाम पाया है मैंने, जब से जन्म हुआ है मेरा,
विविध रूप नामों से जग में लगता रहता मेरा फेरा।
जग-जीवन के दो छोरों में, मैं जीवन का एक छोर हैं,
दुख की काली रात नहीं हूँ, मैं जीवन का स्वर्ण-भोर हूँ।


मैं जन-जीवन का प्रतीक हूँ, मैं उमंग की मृदु हिलोर हूँ,
एक-दूसरे को जो, बाँधे, बन्धन की वह स्नेह-डोर हूँ।
मैं अपने मन का राजा हूँ, नहीं समय का मैं अनुचर हूँ,
मैं दर्पण का उज्ज्वल मुख हूँ, शुभागमन मैं चिर-सुन्दर हूँ।


यह जितनी है सृष्टि, सभी के जीवन का मैं पहला क्रम हूँ,
कोई कहता निपट सत्य मैं, कोई कहता हैं मैं भ्रम हूँ।
जो कुछ हूँ मैं, एक अजन्मा की शुभ इच्छाओं का फल हूँ,
मैं जीवन की प्रथम रश्मि हूँ, सूनेपन की चहल-पहल हूँ।


जब मैं अपनी आँख खोलता, तोप फिर जीवन ही जीवन है,
जल-थल-नभ मेरे घर-आँगन, मेरी गति यह जड़ चेतन है।
जग के जन ग्रह-नक्षत्रों से मेरी गति निर्धारित करते,
मेरे जीवन पथ के जाने कितने-कितने चित्र उतरते।



देख-देख इन गति-विधियों को, मन ही मन मैं मुस्काता हूँ,
ज्ञात मुझे भी नहीं कौन-सा पथ जिस पर मैं बढ़ जाता हूँ।
उत्कण्ठा के पथ चल कर, मैं जग-जीवन में आता हूँ,
आशा के उज्ज्वल प्रकाश-सा, सब के मन पर छा जाता हूँ।
-०००-

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